अँधेरे से झाँकती एक मुकम्मल शक्ल...

अपने समय की नब़्ज पहचाने वाले सशक्त लेखकों में ज्योति चावला का गिना जाना, उनके कहानी-संग्रह ‘ अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती ’ पढ़कर स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यूँ तो चावला अपनी कविताओं से साहित्य जगत् में लोकप्रिय हुई हैं, किंतु उनकी कहानियाँ भी अनेक भाषाओं में अनूदित होकर ख़ूब चर्चित हो रही हैं। इनकी कहानियाँ स्त्री-जीवन के आंतरिक सत्य तक न केवल पहुँचती हैं, बल्कि उससे सामाजिक को इस तरह परिचित कराती हैं कि वह अपने आसपास ही इन पात्रों को महसूस करने लगता है। 2014 में प्रकाशित इस संग्रह में विशेष रूप से जीवन के वे अंश उभरे हैं, जिन्हें रोज़मर्रा के कार्यों में दर-किनार किया जाता रहा है। इसमें स्त्री-विमर्श के कुछ बुनियादी सवाल भी साफ़ नज़र आते हैं, किंतु वे बोल्डनैस, साड़ी-जंफर उतारवाद या उन्मुक्त भोग के पीछे भागते स्त्री-विमर्श से कोसों दूर हैं। इसमें संकलित आठ कहानियाँ– ‘ बंजर ज़मीन ’ , ‘ खटका ’ , ‘ तीस साल की लड़की ’ , ‘ अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती ’ , ‘ बड़ी हो रही है मीताली ’ , ‘ सुधा बस सुन रही थी ’ , ‘ वह उड़ती थी तो ति...