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‘जंगल में दर्पण’ से समय की शिनाख़्त...

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          मूलतः गणित के विद्यार्थी होने के बावज़ूद तरुण भटनागर का साहित्यिक मुहावरा समकालीन रचनाकारों से न केवल भिन्न है, बल्कि उनकी सामयिक शिनाख़्त इतनी पुख़्ता है कि वह उन्हें अलग से पहचाने जाने और उनके संबंध में एक साफ़ दृष्टिकोण बनाने के लिए विवश करती है। कविता और कहानी पर बराबर का अधिकार रखने वाले भटनागर की यूँ तो कई पुस्तकें चर्चित हुई हैं और पुरस्कृत भी, किंतु उनका कहानी-संग्रह ‘ जंगल में दर्पण ’ इधर काफ़ी लोकप्रिय हुआ है। इस संग्रह से वे समय, समाज और सभ्यता को इतिहास, मिथकों व लोक-प्रचलित किस्सों के द्वारा कुछ इस तरह बयां करते हैं कि हम एक साथ कई कालों से परिचित होते चले जाते हैं। इनकी कहानियों को पढ़कर सहज ही लगता है कि ये एक ऐसे कहानीकार की उपज हैं, जिसने जंगल की ज़मीन में बरसों साँस ली है, जिसने गाँव-देहात को बहुत नज़दीक से पहचाना है और जो बहुत गहरे दायित्व-बोध से लिबरेज है। ये कहानियाँ केवल मानसिक खुराफ़ात नहीं हैं, बल्कि भाव, विचार और बौद्धिकता की त्रिवेणी हैं। राहुल सिंह ने पहल के अंक-96 में भटनागर की कहानियों के संबंध में लिखा था, “ तरुण भटनागर की कहानियों की शु

अँधेरे से झाँकती एक मुकम्मल शक्ल...

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          अपने समय की नब़्ज पहचाने वाले सशक्त लेखकों में ज्योति चावला का गिना जाना, उनके कहानी-संग्रह ‘ अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती ’ पढ़कर स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यूँ तो चावला अपनी कविताओं से साहित्य जगत् में लोकप्रिय हुई हैं, किंतु उनकी कहानियाँ भी अनेक भाषाओं में अनूदित होकर ख़ूब चर्चित हो रही हैं। इनकी कहानियाँ स्त्री-जीवन के आंतरिक सत्य तक न केवल पहुँचती हैं, बल्कि उससे सामाजिक को इस तरह परिचित कराती हैं कि वह अपने आसपास ही इन पात्रों को महसूस करने लगता है। 2014 में प्रकाशित इस संग्रह में विशेष रूप से जीवन के वे अंश उभरे हैं, जिन्हें रोज़मर्रा के कार्यों में दर-किनार किया जाता रहा है। इसमें स्त्री-विमर्श के कुछ बुनियादी सवाल भी साफ़ नज़र आते हैं, किंतु वे बोल्डनैस, साड़ी-जंफर उतारवाद या उन्मुक्त भोग के पीछे भागते स्त्री-विमर्श से कोसों दूर हैं। इसमें संकलित आठ कहानियाँ– ‘ बंजर ज़मीन ’ , ‘ खटका ’ , ‘ तीस साल की लड़की ’ , ‘ अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती ’ , ‘ बड़ी हो रही है मीताली ’ , ‘ सुधा बस सुन रही थी ’ , ‘ वह उड़ती थी तो तितली लगती थी ’ , ‘ वह रोज़ सन्नाटा बुनती है ’

बकरी पाती खाती है ताकि काढि खाल, जो जन बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल

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समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना चुके सत्यनारायण पटेल हाशिये पर धकेली जा रही मानवीय अस्मिता के पैरोकार हैं। सजह ढंग से अपनी कथा को किस्सों में पिरोकर प्रकट करना इनकी अपनी विशिष्ट शैली है। अपने कहानी लेखन के विषय में एक साक्षात्कार में इन्होंने स्वयं कहा था, “ मैंने देहात की दुर्दशा और कठिनाइयों को बेहद नजदीक से देखा है। इसी ने मुझे कहानीकार बनने को विवश कर दिया था। सच कहूं तो आधुनिकता के बावजूद देहात अब भी दुर्भाग्य की बस्तियाँ मानी जाती हैं और वहाँ पैदा हुए इंसान को दुर्भाग्य की संतान। ” [1] देहात की स्मृति के किस्से ही इनकी कहानियों के कथानक बनकर सामने आए हैं। अन्योक्ति शैली में व्यग्य की बेजोड़ ताकत लिए इधर इनका नया काहनी-संग्रह ‘ काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लिस ’ अपनी अनुठी संवदनाओं के कारण खूब चर्चित हो रहा है। रोहिणी अग्रवाल की मानें तो इस कहानी-संग्रह में “ लेखक ने कहानी दर कहानी पाठक से अपने वक्त को नई आँख से देखने और नई तरकीब के साथ गढ़ने की अपील की है। ” [2] जादुई यथार्थवाद का पुट लिए कुल 6 कहानियों से युक्त यह संग्रह समसामयिक विमर्शों को फिर से खंगालने के

युग के अनुरूप राम का बदलता स्वरूप (प्रतिनिधि राम-काव्यों के परिप्रेक्ष्य में)

                “ प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। ” [1] अतः प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग की मूल प्रवृत्तियों का संवाहक होता है ; उसका अपने युग से अविच्छिन्न संबंध रहता है। साहित्यकार युगीन संदर्भों के आधार पर कभी नवीन कथाएँ गढ़ता है तथा कभी पूर्व प्रचलित कथाओं का आधार ग्रहण कर उनमें नए अर्थ भरता है, ताकि वह अपने युग का मार्ग प्रशस्त कर सके। प्रेमचंद के अनुसार- “ साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है ; पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है। ” [2] अर्थात् प्रत्येक स्थिति में वह अपने युग के लिए बेचैन रहते हुए सृजन के मार्ग पर अग्रसर होता है। वह समाज को दिशा देने के लिए लोक-हृदय में स्थान बना चुकी पौराणिक कथाओं को आधार बनाता