‘जंगल में दर्पण’ से समय की शिनाख़्त...
मूलतः गणित के विद्यार्थी होने के बावज़ूद तरुण भटनागर का साहित्यिक मुहावरा समकालीन रचनाकारों से न केवल भिन्न है, बल्कि उनकी सामयिक शिनाख़्त इतनी पुख़्ता है कि वह उन्हें अलग से पहचाने जाने और उनके संबंध में एक साफ़ दृष्टिकोण बनाने के लिए विवश करती है। कविता और कहानी पर बराबर का अधिकार रखने वाले भटनागर की यूँ तो कई पुस्तकें चर्चित हुई हैं और पुरस्कृत भी, किंतु उनका कहानी-संग्रह ‘ जंगल में दर्पण ’ इधर काफ़ी लोकप्रिय हुआ है। इस संग्रह से वे समय, समाज और सभ्यता को इतिहास, मिथकों व लोक-प्रचलित किस्सों के द्वारा कुछ इस तरह बयां करते हैं कि हम एक साथ कई कालों से परिचित होते चले जाते हैं। इनकी कहानियों को पढ़कर सहज ही लगता है कि ये एक ऐसे कहानीकार की उपज हैं, जिसने जंगल की ज़मीन में बरसों साँस ली है, जिसने गाँव-देहात को बहुत नज़दीक से पहचाना है और जो बहुत गहरे दायित्व-बोध से लिबरेज है। ये कहानियाँ केवल मानसिक खुराफ़ात नहीं हैं, बल्कि भाव, विचार और बौद्धिकता की त्रिवेणी हैं। राहुल सिंह ने पहल के अंक-96 में भटनागर की कहानियों के संबंध में लिखा था, “ तरुण भटनागर की कहानियों की शु