‘जंगल में दर्पण’ से समय की शिनाख़्त...
मूलतः
गणित के विद्यार्थी होने के बावज़ूद तरुण भटनागर का साहित्यिक मुहावरा
समकालीन रचनाकारों से न केवल भिन्न है, बल्कि उनकी सामयिक शिनाख़्त इतनी पुख़्ता
है कि वह उन्हें अलग से पहचाने जाने और उनके संबंध में एक साफ़ दृष्टिकोण बनाने के
लिए विवश करती है। कविता और कहानी पर बराबर का अधिकार रखने वाले भटनागर की यूँ तो
कई पुस्तकें चर्चित हुई हैं और पुरस्कृत भी, किंतु उनका कहानी-संग्रह ‘जंगल में दर्पण’ इधर काफ़ी लोकप्रिय हुआ है। इस संग्रह से वे समय, समाज और सभ्यता को
इतिहास, मिथकों व लोक-प्रचलित किस्सों के द्वारा कुछ इस तरह बयां करते हैं कि हम
एक साथ कई कालों से परिचित होते चले जाते हैं। इनकी कहानियों को पढ़कर सहज ही लगता
है कि ये एक ऐसे कहानीकार की उपज हैं, जिसने जंगल की ज़मीन में बरसों साँस ली है,
जिसने गाँव-देहात को बहुत नज़दीक से पहचाना है और जो बहुत गहरे दायित्व-बोध से
लिबरेज है। ये कहानियाँ केवल मानसिक खुराफ़ात नहीं हैं, बल्कि भाव, विचार और
बौद्धिकता की त्रिवेणी हैं। राहुल सिंह ने पहल के अंक-96 में भटनागर की कहानियों
के संबंध में लिखा था, “तरुण भटनागर की कहानियों की शुरुआत
महज शुरुआत भर नहीं होती। वह जहाँ शुरु हो रही होती हैं, उससे
पहले भी एक कहानी मौजूद रहती है और उसके बाद भी। इस तरह से हर कहानी उनके लिए एक 'प्रस्थान-बिन्दु' की तरह है और हर कहानी के साथ वे
अपने समय-समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य में प्रस्थान कर
जाते हैं। उनकी चिंता के सूत्र अतीत और वर्तमान में कहीं भी पैवस्त हो सकते हैं और
उनकी चिंता में वर्तमान और भविष्य कभी भी हो सकते हैं। बावजूद इसके उनकी चिंता के
केन्द्र में उनका 'समकाल' ही है। यही
कारण है कि उनकी कहानियों में देश और काल का एक स्पष्ट बोध अनवरत देखने को मिलता
है। देश-काल का यह स्पष्ट बोध तरुण को इस पीढ़ी के कहानीकारों में एक अलग पांत में
खड़ा करता है। तरुण की कहानियों में व्यक्त समकालीनता को सहजता से पहचाना भी जा
सकता है। पर इस समकालीनता को पहचाने जा सकने लायक बनाने के लिए वे जो संदर्भ
बिन्दु या प्रस्थान बिन्दु चुनते हैं, वे प्रस्थान बिन्दु या
चुनाव के क्षण एक खास नुक्ते की तरह उनके बाद की कहानियों में आते हैं।”[1]
अर्थात् भटनागर की कहानियों का कथानक सामयिक देश-काल की चिंता से
भरा हुआ है। उसमें संवेदन-शून्यता तक पहुँचे लोकमानस को चेताने, पूँजीवादी वर्चस्व
की चकाचौंध में भटके समय को टटोलने और मनोविज्ञान के अनछुए कोनों में पहुँचने के
वे सभी आयाम साफ़ नज़र आते हैं, जिनसे आज हम दो-चार हो रहे हैं।
कहानी-संग्रह
‘जंगल में दर्पण’ के संपादक के शब्दों में कहा जा सकता है इस संग्रह में, “लेखक ने साहस के साथ उन इलाकों में प्रवेश किया है जो हिंदी में अब तक
अछूते रहे हैं। जनजातीय मिथकों का विरोधाभासी प्रयोग, रोने जैसे मनोभावों का
प्रतिरोधी आख्यान, इतिहास के रास्ते जंगल के एक अलहदा सच तक की पहुँच, आज के
दफ्तरों में फासीवाद के तत्त्वों की पड़ताल, भूख की प्रतिभागी त्रासदी का चित्र,
गुमने के दुख का खंडन आदि कुछ ऐसी चीजें हैं जो एकदम नयी हैं और निःसंदेह कहानियों
में बेबाकी के साथ उठाई गई हैं।”[2]
अर्थात् भटनागर की कहानियाँ उन विवरणों तक हमें ले जाती हैं, जहाँ
रोना किसी गमी का सूचक नहीं, बल्कि कला बन जाता है, जहाँ ‘राजा’ एक शब्द मात्र नहीं बल्कि सियासत का केन्द्र बनता है, जो व्यक्ति के जीवन
का संस्थापक बनकर सत्ता-लोलूपता में मनुष्यता का संहारक हो उठता है और जहाँ किसी
की भूख, बेबसी और लाचारी किसी दूसरे के लिए बिजनेस। इन कहानियों में ये सारे दृश्य
क्रमवार ढंग से इस प्रकार आते हैं कि हम उनमें कहीं अंदर ही अंदर गहरे में उतरने
लगते हैं।
‘रोना’, ‘ज़हर बुझे तीर के बाद’, ‘जंगल में दर्पण’, ‘प्रथम पुरुष’, ‘दवा, साझेदारी और एक आदमी’,
‘टेबिल’, ‘गुम’ नामक कुल सात कहानियों से संकलित यह संग्रह अपने कहन के ढंग से और अधिक
रोचक बन पड़ा है। इन कहानियों मे जंगल, शहर, देहात के वे चित्र मुख्यतः उभरकर
सामने आते हैं, जिनको पहले कहानी के कथानक के लिए हेय समझा जाता रहा है।
कहानी
‘रोना’ हमें
किशन और मैक्सिक नामक पात्रों के माध्यम से एक ऐसे भावनात्मक सत्य तक ले जाती है,
जहाँ हम अपने आंतरिक और बाह्य रूप से दो भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्ति बन गए हैं।
गाँव और अब संभवतः सभी जगह गमी के समय रोने के लिए किराये पर लाए जाने वाली
युवतियों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि रोना मात्र एक गमी
सिद्ध करने की प्रक्रिया ही नहीं है, बल्कि वह हमें एक ऐसे संवेदनात्मक धरातल पर
ले जाती है, जहाँ हम अपने परिवेश की क्षति को समझ पाते हैं। आज हम अपनी सभ्यता के
विकास में इतने आगे निकल आए हैं कि अब किसी व्यक्ति का सदा के लिए हमारे बीच से
चले जाना भी हमें उद्वेलित नहीं करता। कहानी द्वारा विदेशों में गमी के समय होने
वाली क्रियाओं और भारत के देहातों में होने वाली रुदन क्रियाओं के माध्यम से
कहानीकार संभवतः यह दिखाना चाह रहे हैं कि हम कितने संवेदनहीन समाज की ओर बढ़ रहे
हैं। भटनागर कहानी में लिखते हैं, “हर गम और दुख के अवसर पर
ढूँढ़ने पर भी राने वाले नहीं मिलते हैं। इंसान के व्यक्तिगत दुख की बात तो छोड़ो,
अगर बड़ी से बड़ी त्रासदी भी हो जाये, हज़ारों-लाखों मारे जायें, तब भी कहाँ कोई
रोता है। दुनिया में रोने वालों का टोटा है। वह दिन दूर नहीं जब दुनिया में एक भी
रोने वाला इंसान न रह जाये। जब कोई भी ऐसा न होगा जो रो पाये। कोई भी जिसे आ जाये
रोना। जब बेहद अमानवीय त्रासदी पर भी एक भी न मिले रोने वाला।”[3] अर्थात् यह कहानी हमें उस भयावहता को महसूस करने के लिए तैयार करती है,
जब हम मानवीय होने के सारे गुणों के कोसों दूर हो चुके होंगे। बिजनेसवादी सोच
हमारी दृष्टि को इतनी कुंद कर चुकी होगी कि दर्पण में झाँकता हमारा अक्ष भी हमसे
रूठ जाएगा।
कहानी
‘ज़हर बुझे तीर के बाद भी’ जंगल की वह दास्तान हमारे सामने लाती है, जिसे शायद इससे पहले कहीं सुना
या पढ़ा न गया हो। जंगल में शिक्षा, शासन और जीवन के संबंध में स्थापित मान्यताओं
को यह परत-दर-परत इस तरह विश्लेषित करती है कि पाठक स्वयं को इस जंगल के बीच ही
महसूस करने लगता है। बस्तर के इलाके का एक ऐसा गाँव जहाँ राजा, शिक्षा और
पूँजीवादी सभ्यता के तमाम विकास का पहुँचना अभी शेष है, ऐसे समाज द्वारा जीवन की
बुनियादी जरूरतों को प्राप्त करने के लिए की जाने वाली जद्दोजहद और सभी प्रकार के
अभाव के बाद भी शुकून भरी ज़िन्दगी जीना, हमें जंगल के विकास के नाम पर लागू हो
रही योजनाओं के संबंध में नए ढंग से सोचने का अवसर प्रदान करता है। अपराध, सत्य,
न्याय, नैतिकता के विकसित मॉडल से दूर यह जंगल अपनी संस्कृति में, अपने स्वप्न में
अनूठा है, किंतु बाहर से विकास थोपने पर आमदा सभ्यताएँ, इन्हें यह नए शब्द अपने
ढंग से सिखाना चाहती है। कहानीकार लिखते हैं, “हर कोई चाहता
है कि यह बार-बार प्रमाणित हो कि जंगल में भी अपराध होते हैं। कि जंगल भी उतने ही
अपराधी हैं, जितनी बाहर की दुनिया। हर कोई चाहता है कि यह सत्य हो जाये कि जंगल
में भी उसी तरह अपराध होते हैं जैसे कि बाहर की दुनिया में। जंगल के लोग भी उतने
ही हत्यारे, लुटेरे और बलात्कारी होते हैं जितने की बाहर की दुनिया के लोग।”[4] जंगल में पहुँचने वाली बाहरी सभ्यताओं की शोषणवादी घुसपैठ वहाँ को अपराधी
सिद्ध कर उनके शासक बनने के लिए ही व्यग्र नहीं है, अपितु वह वहाँ से प्राप्त होने
वाली संपदा के लिए भी लालायित है। कहानी अपनी अन्योक्ति शैली में इन सभी सत्यों तक
पहुँचने में सफल सिद्ध हुई है।
कहानी
‘’जंगल में दर्पण’ भी बस्तर जिले के उस जंगल के अनदेखे सच से हमारा साक्षात्कार कराती है,
जहाँ दोरला जैसे संवेदनशील मनुष्य रहते हैं और अब जहाँ बाहर की राजनीतिक पैंतरेबाजियाँ
अपनी जड़ें जमाने लगीं है। जहाँ के अपने सामान्य नियम है, जहाँ न्याय समाज के
बुजुर्गों के सुपुर्द है और जहाँ ‘मारना’ और ‘युद्ध’ जैसे शब्दों के
संबंध में लोग अनजान हैं। जंगलों को अपनी सभ्यताओं के तराजु पर तोलकर देखने वाली अवसरपरक
सोच उन्हें खत्म करने पर उतारू है। जिन सभ्याताओं ने युद्ध, सियासत और चालाकियों
के खुले इतिहास लिखे, आज वे जंगल को अपने ये पाठ अपनाने कि सलाह दे रहे हैं। इन पर
व्यंग्य करते हुए कहानीकार ने लिखा है, “उन्हें नहीं पता था
कि दुनिया के महान लोग वे हुए जो लड़े, और महानतम वे जिन्होंने उन लड़ाइयों को
जीता। जिन्होंने मारा हजारों-लाखों को। जिन्होंने दुनिया पर थोपी लड़ाइयाँ, बरसाये
बम और नष्ट कर दी बस्तियाँ। जिन्होंने मचाया कत्लोगारत, किया मासूमों का संहार। वे
महान हुए। बस्तर के जंगल कभी महान नहीं हो पाये। वे लड़ना जो नहीं सीख पाये। अगर
लड़े भी तो यह जाने बिना कि युद्ध क्या होता है? उनके हिस्से
में इतिहास के गर्वीले क्षण नहीं आये। वे लाशों, रक्त और आसुओं पर मार्च नहीं कर
पाये। वे केवल क्षुधा, अपनी भूख को मिटाने जंगली जानवरों को मारते रहे। महान बनने
के लिए वे इंसानों का कत्लेआम करने से चुक गए।”[5] जिन सभ्यातओं ने उक्त कार्य जितनी अधिकता में किए, वे ही अपने को महान
सिद्ध कर दूसरों को यह सब करने का उपदेश देते आए हैं। भटनागर द्वारा चित्रित बस्तर
का जंगल इन सभी से अछूता रहा, जिसके कारण लिखित इतिहास से वह लगभग नदारद ही रहा।
कहानी ‘प्रथम पुरुष’ लिंगो पेन नामक नायक के माध्यम से
सभ्यताओं के आदि समय में हमें ले जाती है, जहाँ न रिश्ते हैं, न भाषा है और न ही
किसी प्रकार के कोई नियम। हैं तो केवल स्वप्न, भूख, नृत्य, रंग, चित्र और सहवास।
वारांगल के जंगलों के संबंध में लोगों की स्मृतियों में बसे लिंगो पेन का पहला
वाद्ययंत्रों का अविष्कारक होना कहानी का नायक बनकर एक ऐसे विकास को हमारे सामने
लाता है, जिसमें किसी नई चीज़ का निर्माता होना खतरे से खाली नहीं है। अपने भाइयों
के लिए जिस प्रकार लिंगो का वाद्ययंत्र खोजना अच्छा नहीं था, उसी भाँति आज भी नए
ढंग से सोचना और बात रखना खतरे से खाली प्रतीत नहीं होता। कहानीकार ने लिंगों के
संदर्भानुसार लिखा है, “लिंगो रोज कुछ न कुछ बनाता जा रहा
था। वे मानते थे कि जो नया बनाता है, वह अनुपयुक्त है। जो नई बात करता है वह घातक
है। जो नया सोचता है, नया ढूँढ़ता है, दुनिया को उसकी जरूरत नहीं। जिस तरह संगीत
को खोजकर उसने उनकी दुनिया में संकट पैदा किये, वैसे ही और उससे भी भयानक संकट वह
पैदा कर सकता है। वह खोज सकता है कोई नया स्वप्न, बोलने-बतियाने का कोई नया तरीका,
कोई कविता, कोई अनहोनी-सी वस्तु। वह सोच सकता है आकाश में उड़ने के बारे में,
समुद्र में बहुत गहरे उतरने के बारे में, वह सोच सकता है चाँद पर जाने के बारे
में...दुनिया के लिए कितना तो बेतुका होगा ऐसा इंसान।”[6]
कहानी ‘दवा, साझेदारी और एक आदमी’ एक ऐसे सत्य से हमारा
सामना कराती है, जिसमें भूख, लाचारी और बेबसी के बावज़ूद अपने सिद्धातों का
दायित्व उठाने की पूरी ताकत है। यह कहानी सच-झूठ, हत्या-आत्महत्या, बिजनेस-समझौते
से परे भूख और बेबसी के बीच जीवन बचाने का दस्तावेज मानी जा सकती है। कैमिस्ट का
ग्राहक को एल्प्रैक्स की बीस गोलियाँ न देना शायद कोई बड़ी घटना नहीं है, किंतु
कैमिस्ट के मन में चलने वाले दो सवाल ‘आटा’ और ‘साइकिल का टायर’ कहानी के
वे बड़े हिस्से हैं, जो इसे न केवल नया बनाते हैं, बल्कि एक ऐसे घटनाक्रम तक ले
जाते हैं, जहाँ भूख है, बेबसी है और दायित्वों के बोध की गहरी कशमकश है। गरीबी किस
प्रकार आदमी को हत्या के और कुछ हद तक आंतरिक युद्ध के मुहाने पर ले आती है, यह इस
कहानी को पढ़कर सहज ही समझा जा सकता है। कहानीकार लिखते हैं, “आवाज और उँगलियाँ उसके ग्राहक के लिए काँपती थीं...वह उससे डर रहा था जो
उसे पैसे देने को आतुर था...वह उससे नज़रें चुरा रहा था जो उसके बिजनेस के साथ
था...यकीनन वह एकमात्र था जो मृत्यु के खिलाफ़ था...सत्य जानने के बाद भी वह
आश्वस्त होना चाहता था कि कहीं कुछ नहीं होगा...अगर वह गरीब नहीं होता तो वह जीवन
का सबसे बड़ा पक्षधर होता...।”[7]
कहानी ‘टेबिल’ उस फासीवादी मानसिकता के क्रूर चहरे का
दिग्दर्शन हमें कराती है, जिसमें सत्ता, शासन, नीति, नैतिकता, न्याय और राष्ट्र का
केन्द्र कोई एक व्यक्ति या संस्था हो जाती है। वह अपने गैरवाज़िब़ किस्सों को कुछ
इस तरह प्रस्तुत करती है कि सामान्य जनों के जीवन-संबंधी खास विचार व नियम भी उनके
सामने छोटे पड़ने लगते हैं। मिस्टर राजन नामक एक डॉक्टर का अपने मरे हुए मरीज के
सामने ऐसे कातिल स्वरूप की दास्तान बयां करना, हमें चौंकाते हुए भ्रष्ट तंत्र की
तस्वीर दिखाता है।
कहानी ‘गुम’ बाल-मनोविज्ञान द्वारा एक ऐसे सत्य से हमें
दो-चार होने के लिए मजबूर करती है, जिसे हम अपने आसपास देखकर भी अनदेखा कर देते
हैं। कांता, श्रवण और सनेही का पड़ोस की ही भल्ला आंटी के घर में गुम हो जाना,
समाज के उस सत्य तक हमें ले जाता है, जहाँ अभिभावकों की चौकसी बच्चों के प्रति
निरंतर कम होती जा रही है। श्रवण का अपनी माँ से सवाल करना सारी कहानी का
उद्देश्य-सा प्रतीत होता है। “माँ, तुम ताला तोड़कर भी तो
भीतर आ सकती थीं? नहीं, यह पुलिस का काम है। हम देर तक बाहर
खड़े रहे थे। फिर पुलिस आई। हम ताला नहीं तोड़ सकते थे। पुलिस का काम सिर्फ पुलिस
का काम। हाँ पुलिस का। हर गुमने वाला पुलिस का। हाँ पुलिस का। मैं समझता था कि
गुमने वाला उसके माँ-बाप का भी होता है...कि वे भी आ सकते हैं बेझिझक।”[8]
अतः तरुण भटनागर की
कहानियों के संबंध में समग्रतः यह कहा जा सकता है कि उनमें समाज की वे सब तस्वीर
मौजूद हैं, जिनके रंग कुछ-कुछ फीके पड़ने लगे हैं। उनमें जंगल, देहात, शहर और
सियासत के संदर्भों की तमाम सच्चाइयाँ बड़ी बेबाकी के साथ उभरी हैं। उनमें समय की
संकीर्णताओं से पार पाने और वैश्विक-विमर्शों के पहलुओं से जूझते पात्र दर्पण के
अक्ष से बाहर झाँकते महसूस होते हैं।
सन्दर्भ
सूची -
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