‘साम्राज्यवाद' का तमस : उपन्यास तमस
“उसे
लगा जैसे मानवीय मूल्यों का महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व शासकीय मूल्यों
का होता है।”1
‘तमस’ के इस अंश को पढ़कर मन में एक गहन वेदना की
अनुभूति तो होती ही है, साथ ही एक प्रश्न भी उभरता है कि क्या सच में शासकीय
मूल्यों के समक्ष मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं? क्या
सच में, मानवता प्रशासन के कुत्सित कृत्यों और षड़यन्त्रों
के बीच दम तोड़ रही है? क्या चारों तरफ फैला यह घोर अमानवीय
और दुर्दान्त अन्धकार ही अब जीवन को पारिभाषित करेगा?
इसे जीवन की विडम्बना कहें या
जान-बूझ कर उसके साथ खेला जाने वाला घिनौना खेल, पर यही सच है कि शासन की भूख
अनादिकाल से मनुष्यता पर प्रहार करती आई है, फिर चाहे वो महाभारत काल हो,
स्वाधीनता संग्राम हो या फिर वर्तमान पूँजीवादी युग, घायल सदैव मानवता ही हुई है।
शासन की भूख ने तो बड़े-बड़े देशों से तांडव नृत्य कराया है। 16वीं सदी में व्यापारी
का वेश-धारण कर भारत आने वाले यूरोपीय देशों ने शासन की इसी भूख से पराभूत हो,
भारत जैसे समृद्ध देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ लिया था। जो धार्मिक आस्था
भारत की ताकत थी, अंग्रेजों ने अपनी कुटनीति से उसे भारत की
कमजोरी साबित किया, क्योंकि वो अच्छी तरह जानते थे कि यदि भारतवासियों की धार्मिक
आस्था आपस में जुड़ी रही, तो भारत पर शासन करने का उनका सपना, सपना बनकर ही रह
जाएगा। उन्होंने लोगों की उस नब्ज को पकड़ा, जो सीधे-सीधे उनके दिलो-दिमाग से
जुड़ी थी और इस चालाकी से उस पर प्रहार किया कि कब बूँद-बूँद करके उनका सारा खून रिस
गया, उन्हें होश ही ना रहा। जब होश आया, तो चारों तरफ इतना
अंधकार फैल चुका था। अपने-पराये को पहचानना मुश्किल हो चला था। भीष्म सहानी
ने अपनी औपन्यासिक कृत्ति ‘तमस’ में
1947 के मार्च-अप्रैल के आस-पास के ऐसे ही तमस को उजागर किया है। 1975 में प्रकाशित
होने वाला यह उपन्यास देश-विभाजन की जिस त्रासदी का चित्रण करता है, उसे पढ़कर ऐसा
लगता है कि, “जैसे न आजादी का इतिहास पढ़ा जा रहा है, न
बंटवारे का भूगोल, बल्कि पढ़ा जा रहा है नफरत का नागरिक शास्त्र, सियासत का
समाजशास्त्र और हुकूमत का हैवानियत भरा हिंसाशास्त्र।”2
‘तमस’ हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य से उपजी साम्प्रदायिकता, धर्मांधता, मूल्य-विघटन
और इनके परिणामस्वरूप हुई देश-विभाजन की त्रासदी का साक्षात दस्तावेज है। इसमें
साम्प्रदायिक वैमनस्य की आग को फैलाने वाली ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नाति का भी
उद्घाटन है, जिसका उपयोग कर उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया और भारत जैसे
कई और देशों को अपना उपनिवेश बनाया तथा अपनी ‘फूट डालो राज
करो’ की नीति से वहाँ की भोली-भाली जनता के जीवन से खिलवाड़ किया।
उनके बीच के प्रेम और सौहार्द के संबंधों को नफ़रत की
आग में झोंक दिया। जो लोग एक-दूसरे के हमदर्द बनकर साथ रहते थे, उन्हें एक-दूसरे के खून के प्यासे बना दिया गया। ‘तमस’ में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के विश्लेषण से पूर्व साम्राज्यवाद
की सैद्धान्तिक स्पष्टता आवश्यक होगी -
साम्राज्यवाद
का अर्थ :–
साम्राज्यवाद
शब्द साम्राज्य+वाद से निर्मित हुआ है, जिसे
अंग्रेजी में इम्पीरियलिज्म (Imperialism) कहा जाता है। प्रभात बृहत हिन्दी
शब्दकोश के अनुसार साम्राज्यवाद का अर्थ है - “साम्राज्य
का विस्तार करते रहने का सिद्धान्त, छल-बल से अपना राजनीतिक या आर्थिक साम्राज्य
स्थापित करने या उसे बढ़ाने की प्रवृत्ति या नीति।”3 लोकभारती प्रामाणिक हिन्दी कोश के अनुसार इसका अर्थ - “साम्राज्य को बनाए रखने और बढ़ाते चलने का सिद्धांत है।”4 व्यावहारिक हिंदी कोश के अनुसार
साम्राज्यवाद – “साम्राज्य स्थापित करने या बढ़ाने का
सिद्धांत, अन्य राज्यों को दबाकर अपने अधीन लाने की प्रवृत्ति या नीति है।”5 मानक हिन्दी कोश में साम्राज्यवाद का
अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि, “वह वाद या सिद्धांत
जिसमें यह माना जाता है कि किसी देश को अपने अधिकृत क्षेत्रों में वृद्धि करते हुए
अपने साम्राज्य का बराबर विस्तार करते रहना चाहिए।”6
विभिन्न शब्दकोशों में साम्राज्यवाद
के जो अर्थ बताए गए हैं, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि साम्राज्यवाद साम्राज्य का
विस्तार करते रहने की ऐसी प्रणाली या सिद्धांत है, जिसमें छल या बल किसी के भी
प्रयोग द्वारा अपने साम्राज्य को स्थापित करना और निरन्तर उसमें वृद्धि करते रहने
का प्रयास किया जाता है।
साम्राज्यवाद
की परिभाषाएँ :–
साम्राज्यवाद को पारिभाषित
करने हेतु विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित मत रखे गए हैं –
डॉ.
ओमप्रकाश गाबा के अनुसार – “किसी राष्ट्र की ऐसी नीति या कार्यवाही जिसमें वह अपनी राष्ट्रीय एकता
स्थापित करने के बाद अपने उद्योग व्यापार के विस्तार के लिए अन्य देशों को पराधीन
बना लेता है और वहाँ अपना शासन स्थापित कर लेता है।”7
इनसाइक्लोपीडिया
ऑफ सोशल सांइसेस के अनुसार – “साम्राज्यवाद वह नीति है, जिसका उद्देश्य एक साम्राज्य अर्थात एक राज्य का
निर्माण करना, उसका संगठन करना तथा उसे बनाये रखना होता है जो आकार में सुविशाल
हो, जिसमें न्यूनाधिक रूप से अनेक राष्ट्रीय इकाइयाँ सम्मिलित हों तथा जो एक
केन्द्रीय सत्ता के अधीन हों।”8
एच.
जी. वेल्स के अनुसार – “किसी राष्ट्रीय राज्य का जगत व्यापक बन जाने के लिए प्रयत्नशील होना
साम्राज्यवाद है।”9
अतः इन सभी परिभाषाओं के विश्लेषण के
बाद यह कहा जा सकता है कि साम्राज्यवाद एक ऐसा सिद्धांत या नीति है, जिसका
उद्देश्य राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि सभी दृष्टियों से अपने साम्राज्य का
विस्तार करते रहना है, इसके लिए फिर चाहे साम-दाम-दंड़-भेद में से किसी का भी
प्रयोग क्यों न करना पड़े।
‘तमस’ : साम्राज्यवादी नीति की
झलक :–
‘तमस’ में पाँच दिनों के साम्प्रदायिक दगों में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी
नीति के स्वरूप को विश्लेषित किया गया है। ‘तमस’ उपन्यास की कथा का प्रारम्भ ही अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के तहत
होता है, जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु उनके
धर्म पर प्रहार किया जाता है। रिचर्ड जो ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतिनिधि था, वह
भली-भाँती जानता था कि हिन्दुओं व मुसलमानों के धर्म में कौन-कौन-सी चीजें मान्य
हैं और कौन-कौन-सी वर्जित हैं। लीजा को बताते हुए वह कहता भी है कि, “जैसे यह कि सिक्खों के पाँच निशान होते हैं, बालों के अलावा चार चिह्न और
हैं, हिन्दुओं के सिर पर चुटिया होती है और मुसलमानों के भी अपने निशान होते हैं।
फिर खान-पान में भी। हिन्दू गाय का मांस नहीं खाते और मुसलमान सुअर का मांस नहीं
खाते, सिक्ख लोग झटके का मांस खाते हैं जबकि मुसलमान लोग हलाल का मांस खाते हैं.....।”10 इसी का फायदा उठाते हुए रिचर्ड ने हिंदुओं
और मुसलमानों में फूट डालने हेतु मुराद अली को माध्यम बनाकर एक सुअर मस्जिद की
सीढ़ियों पर फैंकवा दिया। बस फिर क्या था, देखते-देखते साम्प्रदायिकता की चिन्गारी
शोला बनकर भभक उठी। पहले गाय को काट कर फैंका गया, फिर एक-दूसरे मजहब के इंसानों
को। चारों तरफ भय का अंधकार छाया हुआ था और रिचर्ड का मस्तिष्क इस उधेड़बुन में था
की अपने साम्राज्य की जड़ों को मजबूत करने में इस स्थिति का फायदा कैसे उठाया जाए –
“उसका मस्तिष्क फिर से बड़ी तेजी से सोचने लगा था कि इस
स्थिति में मुझे क्या करना होगा, सरकार की नीति को किस भाँति क्रियान्वित करना
होगा।”11 रिचर्ड इस बात को
भली-भाँति जानता और मानता था कि हिन्दू-मुसलमान सब एक ही मूल जाति के लोग हैं, पर
वो यह कभी नहीं चाहता था कि यहाँ के मूल निवासी इस सत्य से परिचित हों –“यहाँ के लोग कुछ जानते। ये वही कुछ जानते हैं जो हम इन्हें बताते हैं।”12 मीरदाद जैसे लोग जो वास्तव में अमन-कायम
करना चाहते थे, उन्होंने लोगों के सामने इस सच्चाई को रखा भी,
पर साम्प्रदायिकता के अंधकार से अंधे बने लोग उसे स्वीकार कहाँ तक कर सकते थे? मीरदाद कहता रहा – “ओ कुछ समझो, मीरदाद ने हाथ
झटककर कहा अगर हिन्दू-मुसलमान-सिख मिल जाते हैं, उसमें इत्तहाद हो जाता है तो
अंग्रेज की हालत कमजोर पड़ जाती है। अगर हम आपस में लड़ते रहते हैं तो उसकी हालत
मजबूत बनी रहती है।”13
रिचर्ड जानता था कि हिन्दुस्तान में धर्म एक ऐसी चीज़ है, जिसके नाम पर लोग खून की
नदियाँ तक बहाने को तैयार हो जाते हैं – “सुनो! सभी हिन्दुस्तानी चिड़चिड़े मिजाज के होते हैं, छोटे से उकसाव पर भड़क
उठनेवाले, धर्म के नाम पर खून करनेवाले, सभी व्यक्तिवादी होते हैं।”14 जब स्वयं रिचर्ड की पत्नी लीजा अंग्रेजों की
साम्राज्यवादी नीति का पर्दाफ़ाश करती है, तब रिचर्ड उससे कहता है कि, “धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं, देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते हैं।”15 इसके प्रति उत्तर में लीजा कहती है कि, “बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूँ। देश के नाम पर ये लोग
तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम पर तुम इन्हें आपस में लड़ाते हो। क्यों,
ठीक है ना?”16 इतना ही नहीं
जब लीजा इन दंगों को रोकने की बात करती है, तो रिचर्ड अपनी साम्राज्यवादी
विचारधारा को स्पष्ट करते हुए कहता है कि, “डार्लिंग, हुकूमत
करनेवाले यह नहीं देखते कि प्रजा में कौन-सी समानता पायी जाती है, उसकी दिलचस्पी
तो यह देखने में होती है कि ये किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं।”17 रिचर्ड इस बात को अच्छे से समझ गया था कि
हिन्दुस्तानी किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं और इस बात का उसने भरपूर
फायदा उठाया था। यह उसी का परिणाम है कि, “मुहल्लों के बीच
लीके खिंच गयी थी, हिन्दुओं के मुहल्ले में मुसलमान को जाने की अब हिम्मत नहीं थी
और मुसलमानों के मुहल्ले में हिन्दू-सिख अब नहीं आ-जा सकते थे।”18
1947
में हुए साम्प्रदायिक दंगों के पीछे अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति ही काम कर
रही थी, किन्तु हमारी साम्प्रदायिक संकीर्णता, क्षुद्र स्वार्थ और धर्म के प्रति
अन्धापन भी इसके लिए कुछ कम जिम्मेदार न थे। उस समय देश की दो बड़ी पार्टियाँ –
कांग्रेस और मुस्लिम लीग, जिन्हें लोगों के बीच फैले तनाव को कम करना चाहिए था, वे
एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रही थीं। एक-दूसरे को साम्प्रदायिक जामा पहनाने में व्यस्त
थीं। मुस्लिम लीग मानती थी कि, “कांग्रेस
हिन्दुओं की जमात है। इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है...यह सब हिन्दुओं
की चालाकी है, बख्शीजी, हम सब जानते हैं। आप चाहें जो कहें, कांग्रेस हिन्दुओं की
जमात है। कांग्रेस हिन्दुओं की जमात है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। कांग्रेस
मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती।”19 साम्प्रदायिकता ने अपना रंग कुछ इस कदर लोगों पर चढ़ाया कि उन्हें अपनी
आज़ादी, एक अलग देश के निर्माण में दिखायी देने लगी – “हिन्दुस्तान
की आजादी हिन्दुओं के लिए होगी, आज़ाद पाकिस्तान में ही मुसलमान आजाद होंगे।”20 जिस साम्प्रदायिकता का तमस ‘तमस’ में छाया है, वह अंग्रेजों की उसी
साम्राज्यवादी नीति की देन है, जिसको साकार रूप देने के लिए रिचर्ड हमेशा तत्पर
रहता है – “जब वह प्रशासक की कुर्सी पर बैठता तो वह ब्रिटिश
साम्राज्य का प्रतिनिधि था, और उन नीतियों को क्रियान्वित करना जो लन्दन से
निर्मित होकर आती थी...उस चौकसी में था, जिससे बिना किसी आहट के, ब्रिटिश सरकार की
नीतियों को अमली जामा पहनाया जाता था।”21 रिचर्ड जानता है कि यदि प्रजा आपस में लड़ती-मरती रहेगी, तो ब्रिटिश
साम्राज्य को कोई खतरा नहीं होगा, इसलिए वह जनता को धर्म के नाम पर लड़वाता है।
उपन्यास में एक स्थान पर वह इसे स्वीकार भी करता है – “अगर
प्रजा आपस में लड़े तो शासक को किस बात का खतरा।”22 तमस में जिस साम्राज्यवादी नीति के तहत यह सारा षड़यंत्र रचा गया उसकी
किसी को खबर न हो, ऐसा नहीं है। देवदत्त, बख्शी, जरनैल, सोहनसिंह, मीरदाद, मनोहर
लाल आदि ऐसे पात्र हैं, जो अंग्रेजों की कुटनीति से परिचित थे और बार-बार लोगों को
इससे परिचित कराने का कार्य करते रहे, पर लोग धर्म के नशे में बह चले थे। लोगों को
इनकी बातों में चालाकी और पागलपन ही दिखायी देता था। जरनैल, उपन्यास के आरम्भ से
अन्त तक लोगों को अंग्रेजों की कुटनीति के बारे में चेताते-चेताते वीरगति को
प्राप्त हो गया – “तुम बुजदिल हो। यह अंग्रेज की शरारत है।
मैं उसका भाण्डाफोड़ करूँगा।”23 एक अन्य स्थान पर जरनैल जनता से अपील करते हुए कहता है कि, “मैं आपसे, बच्चे, बूढ़े, जवान मर्द और औरतों सभी से अपील करता हूँ कि आपस
में लड़ना बन्द कर दें। इससे मुल्क को नुकसान पहुँचता है। देश की दौलत इंगलिस्तान
में जाती है, अंग्रेज – यह गोरा बन्दर, हम पर हुक्म चलाता है......।”24 पर लोग, यहाँ तक की काँग्रेस के कार्यकर्ता
भी जरनैल को पागल कहकर उसकी बातों को अनसुना कर देते हैं। बख्शी, जो काँग्रेस का
सशक्त कार्यकर्ता था, वह भी अंग्रेजों की कुटनीति से परिचित था और मन-ही-मन इसे
स्वीकार भी करता था। इसके बावजूद वह बाहर कोई ठोस प्रतिक्रिया, इस संबंध में नहीं
करता है। वह स्वीकार करता है कि, “फिसाद करवाने वाला भी
अंग्रेज, फिसाद रोकने वाला भी अंग्रेज, भूखे मारने वाला भी अंग्रेज, रोटी देने
वाला भी अंग्रेज, घर से बेघर करने वाला भी अंग्रेज, घरों में बसाने वाला भी
अंग्रेज।”25 मनोहर लाल तो
खुलकर सरकार और उसकी नीतियों पर प्रहार करता है – “इन
फिसादों के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार उस वक्त कहा थी जब
शहर में तनाव बढ़ रहा था, अब कर्फ्यू लगाया जा रहा है, उस वक्त क्यों नहीं लगाया
गया? उस वक्त साहब बहादुर कहाँ थे?”26 सोहनसिंह सिक्खों को अंग्रेजों की नीति से
परिचित कराते हुए कहता है कि, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि
हम लोगों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है। हम झूठी अफवाहें सुन-सुनकर
एक-दूसरे के खिलाफ तैश में आ रहे हैं।...वह हमारे डर से असला इकट्ठा कर रहे
हैं...यह सब अंग्रेजों की शरारत है।”27 पर सिक्ख सोहनसिंह की बात को यह कहकर अनसुना कर देते हैं कि वो मुसलमानों
की तरफ से बोल रहा है। मीरदाद, जो मुसलमानों को बार-बार समझाता है कि इन सबके पीछे
अंग्रेजों का हाथ है, परन्तु मुसलमान उसकी बात को यह कहकर कि यह हमारा मजहबी मामला
है इसलिए अंग्रेज इस मामले में नहीं पड़ता, उसकी बात को नज़रअंदाज कर देते हैं।
इसके बाद भी वह लोगों को जगाने की केशिश करता है कि, “मतलब,
कि हम एक-दूसरे का सिर काटें और वह मजहबी मामला कहकर तमाशा देखता रहे, फिर वह
हाकिम कैसा हुआ?”28
‘तमस’ को पढ़कर प्रफुल्ल कोलख्यायन की एक बात याद आती है, जब वे कहते
हैं कि, “उपनिवेश का
प्रशासन जनता के हित से नहीं, कानून की मांग से नहीं बल्कि आका के हित से अपने को
प्रतिबद्ध करता है। सामाजिक प्रगति को नहीं, अपनी पदोन्नति को सामने रखकर चलना
उसकी प्राथमिकता होती है।”29 ‘तमस’ का अंग्रेज अधिकारी
रिचर्ड ब्रिटिश साम्राज्य का ऐसा ही प्रतिनिधि है, जिसकी
प्राथमिकता ब्रिटिश साम्राज्य को सुदृढ़ और विस्तृत करने की है। जनता का हित
किसमें है, इससे उसे कोई लेना-देना नहीं है और न ही इस बात
से कोई लेना-देना है कि जिस साम्प्रदायिकता का बीज वह बो रहा है, उसका भयंकर
परिणाम पीढ़ियों तक भारतवासियों को भुगतना पड़ेगा। यह बात वहाँ जाकर स्पष्ट होती
है, जहाँ लीजा के यह पूछने पर कि इतना भारी नुकसान होने पर
उन्हें कोई फ्रक नहीं पड़ा, रिचर्ड जवाब में कहता है –“इसमें
कोई विशेष बात नहीं है, लीजा सिविल सर्विस हमें तटस्थ बना देती है। हम यदि हर घटना
के प्रति भावुक होने लगे तो प्रशासन एक दिन भी नहीं चल पाएगा। यदि 103 गाँव जल
जाएँ तो भी नहीं? तो भी नहीं, रिचर्ड ने तनिक रूककर कहा, यह
मेरा देश नहीं है। न ही, ये मेरे देश के लोग हैं।”30 पूरे उपन्यास में रिचर्ड ने इस सतर्कता से अंग्रेजी साम्राज्यवादी नीति
को क्रियान्वित किया है कि देवदत्त, जरनैल, सोहनसिंह, मीरदाद की लाख कोशिशों के
बावजूद भी लोग रिचर्ड की ईमानदारी पर शक नहीं कर पाए, उन्हें रिचर्ड में दुश्मन की
बजाय हमदर्द ही दिखाई दिया –“भले ही डिप्टी कमीश्नर
साम्राज्यवादी मशीन का पुर्जा नहीं है। यह बड़ी सूझ-बूझ वाला और हमदर्द आदमी है।”31 उपन्यास के अन्त में स्वयं रिचर्ड इस बात
को अनुभव करता है कि उसने सरकार का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया है –“इस वक्त उसके कैरियर में एक निर्णायक घड़ी आ पहुँची थी, जिसमें एक
नाजुक-सा सन्तुलन बनाए रखना बेहद जरूरी था, यह देखना निहायत जरूरी था कि जनता का
असन्तोष ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध न भड़के। अभी तक उसने सब काम बड़ी समझदारी और
कुशलता से सम्पन्न किए थे। लोग उसकी ईमानदारी से प्रभावित हुए थे। हर बात सटीक
बैठी थी।”32 यही कारण है कि
एक स्थान पर बख्शी द्वारा रिचर्ड की करतूतों का पर्दाफ़ाश कर देने पर भी लोगों ने
रिचर्ड के प्रति कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, जबकि यह
सारा किया-धरा रिचर्ड का ही था – “हमें
खबर मिली है कि अभी घण्टा-भर पहले, आपके अंग्रेज पुलिस अफसर राबर्ट साहिब ने
जबरदस्ती एक मुसलमान परिवार को एक घर में से निकाला है। इससे उस सारे इलाके में
तनाव बढ़ गया है, क्योंकि वह मुसलमान एक हिन्दू मकान मालिक का किरायेदार था। मैं
सोचता हूँ शहर की हालत को देखते हुए इस तरह की कारवार्इ को स्थगित किया जा सकता
था।”33
‘तमस’ में जो तमस फैला पड़ा है, वह अंग्रेजों की जिस
साम्राज्यवादी नीति की देन है, उसे ‘तमस’ के ही विभिन्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। ‘तमस’ का अध्ययन करने के पश्चात एक प्रश्न मन में
उभरता है कि क्या तमस की कहानी उसमें होने वाले साम्प्रदायिक दंगों की समाप्ति के
साथ ही समाप्त हो गई या रिचर्ड का तबादला किसी ऐसी ही नई कहानी की ओर संकेत करता
है?
यद्यपि ‘तमस’ में जिस साम्राज्यवादी नीति के दर्शन होते हैं,
वह आज उस रूप में हमारे सामने नहीं है, किन्तु अपने परिवर्तित रूप में आज भी वह विद्यमान
है। इसी ओर संकेत करते हुए डॉ. अमरनाथ लिखते है कि, “साम्राज्यवाद
का एक ऐसा नवीन रूप विकसित हुआ है जो स्पष्ट रूप से न तो राजनीतिक है और न आर्थिक
वरन् उसका एक ऐसा रूप है जिसके अंतर्गत साम्राज्यवादी देश इस बात का सतत प्रयत्न
करते रहते हैं कि संसार में उनका प्रभाव क्षेत्र व्यापकतम् हो ताकि वे निर्बाध
व्यापार कर सकें और अकूत मुनाफा कमाकर अपने देश को समृद्धि के शिखर तक पहुँचा
सकें।”34
साम्राज्यवादी स्वरूप के उद्घाटन के अपने
उद्देश्य में भीष्म सहानी का यह उपन्यास सफल कहा जा सकता है।
सन्दर्भ
सूची -
1.
साहनी, भीष्म, तमस (सातवां संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ – 111
2.
वही, पृष्ठ – 153
3.
वर्मा, श्याम बहादुर, प्रभात बृहत हिंदी कोश(खंड-2), नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन, 2010, पृष्ठ – 2529-2530
4.
वर्मा, रामचन्द्र, लोकभारती प्रमाणिक हिंदी कोश(तृतीय संस्करण), इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, 1996, पृष्ठ – 853
5.
तिवारी, भोलानाथ(सम.), व्यवहारिक
हिंदी कोश, नई दिल्ली : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1974, पृष्ठ – 336
6.
वर्मा, रामचन्द्र, मानक हिंदी कोश(पांचवां खण्ड) प्रयाग : हिंदी साहित्य सम्मेलन, 1966, पृष्ठ – 346
7.
गाबा, ओमप्रकाश, राजनीति विज्ञान कोश, दिल्ली : बी. आर. पब्लिशिंग कार्पोरेशन, 1968, पृष्ठ – 140-141
8.
दृष्टव्य - अमरनाथ, हिंदी आलोचना की
पारिभाषिक शब्दावली, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2013, पृष्ठ - 376
9.
दृष्यव्य - वही, पृष्ठ - 376
10.
साहनी, भीष्म, तमस (सातवां संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 1992, पृष्ठ –45
11.
वही, पृष्ठ – 111
12.
वही, पृष्ठ – 37
13.
वही, पृष्ठ – 179
14.
वही, पृष्ठ – 44
15.
वही, पृष्ठ – 44
16.
वही, पृष्ठ – 44
17.
वही, पृष्ठ – 45
18.
वही, पृष्ठ – 122
19.
वही, पृष्ठ – 32
20.
वही, पृष्ठ – 32
21.
वही, पृष्ठ – 41
22.
वही, पृष्ठ – 47
23.
वही, पृष्ठ – 56
24.
वही, पृष्ठ – 140
25.
वही, पृष्ठ – 223
26.
वही, पृष्ठ – 222
27.
वही, पृष्ठ – 177
28.
वही, पृष्ठ – 179
29.
वही, पृष्ठ – 38-39
30.
वही, पृष्ठ – 228
31.
वही, पृष्ठ – 219
32.
वही, पृष्ठ – 227
33.
वही, पृष्ठ – 76
34.
अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2013, पृष्ठ - 376
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