युग के अनुरूप राम का बदलता स्वरूप (प्रतिनिधि राम-काव्यों के परिप्रेक्ष्य में)
“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब
होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य
के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।”[1] अतः प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग की मूल प्रवृत्तियों का संवाहक
होता है; उसका अपने युग से अविच्छिन्न संबंध रहता है।
साहित्यकार युगीन संदर्भों के आधार पर कभी नवीन कथाएँ गढ़ता है तथा कभी पूर्व
प्रचलित कथाओं का आधार ग्रहण कर उनमें नए अर्थ भरता है, ताकि वह अपने युग का मार्ग
प्रशस्त कर सके। प्रेमचंद के अनुसार- “साहित्यकार बहुधा अपने
देश काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए
उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के
कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है; पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है।”[2] अर्थात् प्रत्येक स्थिति में वह अपने युग के लिए बेचैन रहते हुए सृजन के
मार्ग पर अग्रसर होता है। वह समाज को दिशा देने के लिए लोक-हृदय में स्थान बना
चुकी पौराणिक कथाओं को आधार बनाता है और युग के अनुरूप उन्हें नए ढंग से विवेचित
करने लगता है, फिर राम-कथा तो भारतीय लोक की सबसे प्राचीन कथाओं में से है। वह
लोक-रुचि व लोक-प्रसिद्धि, दोनों ही स्थापनाओं से ओतप्रोत है। अतः युगदृष्टाओं के
लिए राम से बेहतर चरित्र और हो भी क्या सकता था? यही कारण है
कि युग-परिवर्तन के साथ-साथ राम का वृत्त अनादिकाल से स्वयं ही काव्य का रूप लेकर
परिणत होता आया है।
राम
का स्वरूप कभी ऐतिहासिक, कभी पौराणिक तो कभी मिथकीय आधार पर विवेचित होते हुए युग-परिवर्तन
के साथ समाज को नई दिशा देता रहा है। राम को काल्पनिक पुरुष सिद्ध करने वाले
विद्वानों में डॉ. वेबर, विंटरनित्ज़, भंडारकर, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी व डॉ. सेन
प्रमुख हैं तथा ऐतिहासिक पुरुष मानने वाले विद्वानों में डॉ. कामिल बुल्के,
धीरेन्द्र वर्मा आदि का नाम लिया जा सकता है। इन दोनों ही श्रेणियों का सार मत भी
यदि स्वीकार किया जाए, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राम-काव्य सभी
आदिकाव्यों में प्राचीन है तथा भारतीय जनमानस के लिए नई शक्ति का संचारक है। विनोद
शाही के अनुसार यह राम-काव्य उस समय हमारे समाज में स्थान बना रहा था, जब हम
जंगलों से निकलकर सामाजिक संरचना का एक निश्चित ढाँचा तलाश कर रहे थे- “एक सभ्यतामूलक परिघटना के सारतत्त्व की तरह, एक ‘कथा’ के नाम ‘राम’, अभी तक हमारे
अंग-संग चलते हुए, विकास कर रहे हैं। वे उस दौर से अपना व्यक्तित्व पाते हैं, जब
भारतीय समाज मातृसत्ता से पितृसत्ता में प्रवेश कर रहा था; जब
जांगल या वनवासी जीवनपद्धति और व्यवस्था धीरे-धीरे कृषि-आधारित नयी समाज संरचना को
उपलब्ध हो रही थी और जब कबीलायी मूल्य और संबंध टूटने-बिखरने लगे थे तथा एक नई
अधिक विकसित सामंतीय संबंधों व मूल्यों की चेतना, यज्ञसंस्कृति के रूप में,
सत्तावर्चस्व का केन्द्र बनने की कोशिश कर रही थी।”[3] अर्थात् राम का चरित्र उस युग को संदर्भित कर रहा था, जब हम राज्य के एक
नवीन ढाँचे का निर्माण करने में संलग्न थे।
ऐसे विशद ढाँचे को खड़ा करने वाले राम-काव्य
के सबसे प्राचीन स्त्रोत के रूप में हमारे सामने वाल्मीकि रामायण है, जिसमें राम
एक विराट व्यक्तित्व के रूप में वर्णित हैं। वाल्मीकि-युग में एक ऐसे विराट चरित्र
का आख्यान अपेक्षित था, जो जीवन का एक ऐसा सुदृढ़ ढाँचा प्रस्तुत करे, जिसे अपनाकर
लोक राज्य, परिवार, धर्म आदि की संकल्पनाएँ समझ व सीख सके, इसलिए “वाल्मीकि ने मानवीय विकास की चरम सीमा तक मानवीय गुणों के अनुपम आदर्श के
रूप में प्रभु रामचंद्र को, मानवीय गुणों से युक्त एक मानव के रूप में ही प्रस्तुत
किया। उनकी माता-पिता के प्रति भक्ति, भाइयों के प्रति स्नेह, पत्नी के प्रति
प्रेम–उसकी करुणा और विशुद्धता में–सबके प्रेम का विषय बन गया है। ये और प्रतिदिन
के मानव-जीवन के अन्यान्य पक्षों को इतने उत्कृष्ठ रूप में रखा गया है कि जिनसे
स्फूर्ति ग्रहण कर सर्वसाधारण मनुष्य अपने दैनिक जीवन को उस उज्ज्वल आदर्श के
अनुसार ढाल सकें तथा उन्नत कर सकें। जिन कठिनाइयों से वे पार निकले, माता-पिता तथा
बाद में अर्धांगिनी के वियोग का दुख सहन किया और अंत में पाप एवं अधर्म की
शक्तियों पर उन्होंने जो विजय प्राप्त की, उससे हमारे हृदय में आशा की लहर पैदा
होती है और समस्त आपत्तियों से लोहा लेकर, उन पर विजय प्राप्त कर इस पृथ्वी पर
अपने को ईश्वरीय प्रतिमा के अनुरूप हम बना सकते हैं।”[4] अर्थात् वाल्मीकि-रामायण राम के एक ऐसे सांसारिक रूप का आख्यान है, जो
विराट पुरुष तो हैं, किन्तु मानवीय स्वभाव उसमें सर्वथा आगे है। वह वियोग-संयोग व
सुख-दुख आदि के सभी प्रसंगों में एक सामान्य मनुष्य की भाँति विह्वल होते हैं। सीता
के भूमि में समा जाने पर राम वसुधा पर अत्यंत क्रोध प्रकट करते हैं तथा कहते हैं –
“आनय
त्वं हि तां सीतां मत्तोअहं मैथिलीकृते।
न मे
दास्यसि चे त्सीतां यथारूपां महीतले।।
सपर्वतनां
कृत्स्नां विधमिष्यामि ते स्थितिम्।
नाशयिष्याम्यहं
भूमिं सर्वमापो भवत्विह।।”[5]
अतः
राम का आदि स्वरूप ऐसा है, जो इस प्रकार के मानवीय क्रोध से स्वयं को बचा नहीं सका
है। वह जहाँ कहीं भी अपना अवतारी होना विस्मृत करतें है, वहीं दैवीय सत्ता उन्हें
अवतार का पुनः स्मरण कराती हैं। सीता के वियोग में क्रोधित राम को ब्रह्मा जी इस
रूप में समझाते हैं –
“राम
राम न सन्तापं कर्तुमर्हसि सुव्रत।
स्मर त्वं
श्पूर्वकं भावं मन्त्रं चामित्रकर्शन।।”[6]
इस
प्रकार वाल्मीकि रामायण के नायक राम एक ऐसे विराट पुरुष हैं, जो अपनी अन्तश्चेतना
में चाहे अवतार हों, किन्तु उनका बाह्य रूप मानवीय है। संसार के समस्त ताप से अन्य
लोगों की भाँति वह भी ग्रसित हैं। वाल्मीकि के यह राम अपने युग की समस्त
आकांक्षाओं को पूर्ण करते हुए, एक ऐसे व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा करते हैं, जो दैवीय
शक्तियों से संचालित होते हुए भी मानवीय है।
वाल्मीकि-रामायण के बाद तात्कालिक लोक
भाषाओं में राम के स्वरूप के विभिन्न प्रशस्ति गान लिखे गए, किन्तु मध्यकाल में
तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ राम-कथा को एक नया मोड़ देता है। वाल्मीकि के विराट पुरुष पूर्णतः अवतार
के रूप में लोक-जीवन के निवारक का रूप लेकर तुलसी के मानस में विवेचित होते हैं। शुक्ल
राम के इस अवतार को युगीन परिस्थितियों का ही परिणाम मानते हैं। मध्यकाल का भारतीय
समाज जब चारों ओर से मुस्लिम शासन द्वारा परिचालित हुआ, तो हिंदू जनता के हृदय में
निराशा की एक गहरी लहर दौड़ गई। वह अपने ईश के न तो गुण गा ही सकती थी और न लज्जित
होकर सुन ही सकती थी। सच्चे शासकीय भाव समाप्त हो गए थे तथा एक भाई को मारकर दूसरा
भाई राजगद्दी पाने के लिए तत्पर था। ऐसे विकट समय में वाल्मीकि के मानवीय भावों से
परिपूर्ण राम पूर्णतः अलौकिक शक्तियों से ओतप्रोत हो तुसली के मानस में अवतार
ग्रहण करते हैं। रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, “जिस समाज में
बड़ों का आदर, विद्वानों का सम्मान, अत्याचार का दलन करने वाले शूरवीरों के प्रति
श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जायँ, वह कदापि फल-फूल नहीं सकता; उसमें
अशान्ति सदा बनी रहेगी। भक्ति का यह विकृत रूप जिस समय उत्तर भारत में अपना स्थान
जमा रहा था, उसी समय भक्तवर गोस्वामीजी का अवतार हुआ, जिन्होंने वर्णधर्म,
आश्रमधर्म, कुलाचार, वेदविहित कर्म, शास्त्रप्रतिपादित ज्ञान इत्यादि सबके साथ
भक्ति का पुनः सामंजस्य स्थापित कर आर्यधर्म को छिन्न-भिन्न होने से बचाया। ऐसे
सर्वांगदर्शी लोक व्यवस्थापक महात्मा के लिए मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के
चरित्र से बढ़कर और क्या मिल सकता था। उसी आदर्श चरित्र के भीतर अपनी अलौकिक
प्रतिभा के बल से उन्होंने धर्म के सब रूपों को दिखाकर, भक्ति का प्रकृत आधार खड़ा
किया। जनता ने लोक की रक्षा करने वाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा।”[7] अतः तुलसी के राम एक ऐसे अवतारी पुरुष का स्वरूप लेकर उपस्थित हुए,
जिनमें ज्ञान-भक्ति-कर्म तीनों का सहज संयोग हुआ। वह मर्यादा और शील के संस्थापक
बने, जिनका समस्त चरित्र आदर्श की अवधारणा का संस्थापक है। तुलसी ने राम के मानवीय
गुणों से संबंधित अनेक प्रसंगों को हटाकर एक ऐसा चरित्र प्रस्तुत किया, जो हताश व
निराश जाति में आशा की किरण लेकर उपस्थित हुआ। इस राम के चरित्र के संबंध में
स्वयं तुलसी लिखते हैं –
“कुपथ कुतर्क कुचाली कलि, कपट दंभ
पाषंड।
देहन राम गुणग्राम इमि, ईंधन अनल
प्रचंड।।”[8]
ऐसे
अग्निपुंज राम को दैत्य, नाग, पक्षी, मनुष्य आदि सभी अपना अराध्य मानकर उनकी
कीर्ति का गुणगान करते हैं –
“असुर नाग खर नर मुनि देवा। आय
करहिं रघुनायक सेवा।
जन्ममहोत्सव रचहिं सुजाना करहिं राम
कलकीरति गाना।।”[9]
अतः
मध्यकाल के राम पौराणिक राम से भिन्न एक आदर्श राजा, भाई, पुत्र आदि के साथ-साथ
अवतारी व दैवीय सत्ता के संवाहक बने। इस प्रकार तुलसीदास ने अपने अंधकारमय युग को
दिशा देने हेतु वाल्मीकि के राम को अपने युग के अनुरूप ढाल कर जनता के समक्ष इस
रूप में प्रस्तुत किया कि जनता उन्हें अपना रक्षक मानकर, निराशा के उस अंधकार से
मुक्त हो सकने का स्वप्न फिर से देखने लगी।
मध्यकाल के बाद रीतिकाल का ऐसा युग हिंदी
साहित्य ने देखा, जिसमें राजा की स्तुति, सुरा का पान व राजमहल में सम्मान पाना ही
कवि होना बन गया। रीतिकाल में राम भी प्रतिभा-प्रदर्शन के निमित्त ही प्रयोग किए
गए। केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में राम का आचरण, शील-स्वभाव, लोक-कल्याणकारी रूप कहीं पीछे छूट गया और
अलंकारों व छंदों का सौंदर्य आगे आ गया। आचार्य शुक्ल ‘रामचन्द्रिका’ के संबंध में लिखते हैं, “रामचंद्रिका के लंबे
चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के
गम्भीर और मार्मिक पक्षों पर न थी। उनका मन राजसी ठाटबाट, तैयारी, नगरों की सजावट,
चहल पहल आदि के वर्णन में ही विशेषतः लगता है।”[10] अतः राम को तुलसी ने मानवीय भक्ति के जिस स्तर व मर्म तक पहुँचाया था, वह
युग-विशेष की चित्तवृत्ति के कारण अपना नया रूप लेने लगा। केशवदास ने राम के
अवतारी स्वरूप को तो ज्यों-का-त्यों रखा, किन्तु छंद-शास्त्र का पांडित-प्रदर्शन
उसमें प्रमुख हो गया। केशव स्वयं लिखते हैं –
“जागति जाकी ज्योति जग एक रूप
स्वच्छंद।
रामचन्द्र की चंद्रिका बरणत हौं बहु
छंद।।”[11]
अतः
राम के व्यक्तित्व द्वारा विलासी राजाओं के सामने त्याग का जो आदर्श प्रस्तुत होना
चाहिए था, वह कहीं पीछे छूट गया और कवि का चमत्कार प्रदर्शन ही प्रमुख हो गया। इस
युग में आकर राम के व्यक्तित्व की झलक कुछ फीकी पड़ गई। यह युग का ही प्रभाव था कि
जनता ने राम जैसे चरित्र में भी अभिनय एवं मनोरंजन ही तलाशा।
रीतिकाल
के बाद आधुनिक काल तक आते-आते एक ओर जहाँ भारत में शासन परिवर्तित होकर पूर्णतः
अंग्रेजों के हाथों में चला गया, वहीं दूसरी ओर अब शासक भारत-भूमि के न रहकर
बिल्कुल बाहरी हो गए। ऐसे में कवियों के सामने एक विशेष चुनौती आन खड़ी हुई कि इस
ताकतवर सत्ता से लड़ने के लिए जनमानस को कैसे जागृत किया जाए? ऐसे विकट समय में लोकरक्षक राम का विराट व्यक्तित्व कवियों को पनुः
आकर्षित कर रहा था। डॉ. रामलखन पाण्डेय इन परिस्थितियों के संबंध में लिखते हैं, “पौराणिक काल और भक्ति युग ने राम और कृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में
प्रतिष्ठित कर उन्हें इस देश की सामाजिक आत्मा से जिस रूप में भिन्न कर दिया था और
धर्म ग्लानि एवं असुरों के अत्याचार के समय जिस तरह उनके द्वारा रक्षा की मोहक
कल्पना को मानसिक संतोष में बैठा दिया था–पौराणिक और भक्ति युग का वह विह्वल करने
वाला भाव-प्रवाह देश की जनता में उमड़ता हुआ भी देश की पराधीनता देखकर अवरुद्ध था,
अंग्रेजों की दमन नीति और धर्म की दृष्टि में इन म्लेच्छों का धर्म-प्राण देश पर
शासन-अवतारवाद की समस्त भावधारा को गन्धर्व नगर की परिकल्पना बनाए हुए था। धर्म की
हानि हो रही थी, देश गुलाम था, फिर भी भगवान अवतार नहीं ले रहे थे, भगवान राम की
अयोध्या, भगवान कृष्ण का गोकुल सभी हतप्रभ हैं, पर उस ज्योति का कोई पता नहीं है।
इस परिस्थिति ने साहित्यिक बुद्धि और हृदय से पूर्ण जनचेतना को अतिमानवीय कल्पनाओं
से हटाकर मानवीय विचारों की ओर उन्मुख किया।”[12] अतः ऐसी परिस्थियों में कवियों द्वारा राम का ऐसा चरित्र जनता के सामने
लाया गया, जो अवतार की अपेक्षा पुरुषार्थ, भाग्य की अपेक्षा कर्म को स्थापित करने
वाला था। ऐसे समय में मैथिलीशरण गुप्त ऊर्मिला को आधार बनाकर एक ऐसी रामकथा ‘साकेत’ के रूप में सामने लाते हैं, जिसमें राम का
चरित्र पुरुषार्थ का प्रतीक बनकर उभरता है। गुप्त के राम राज्य के अभीप्सक नहीं
हैं, अपितु प्रजा के हितैषक के रूप में चित्रित हैं। गुप्त लिखते हैं –
“वही हो जो तुम्हें हो इष्ट मन
में,
बने नूतन अयोध्या नाथ वन में।
भले ही दैव का बल दैव जाने,
पुरुष जो है न क्यों पुरुषार्थ
माने।”[13]
अतः
साकेत में राम अपनी पौराणिक व मध्यकालीन छाया से बाहर आकर, कर्म को ही जीवन का
सौन्दर्य सिद्ध करते हैं। गुप्त के यह राम गाँधी के चरित्र में अपने युग का
प्रतिनिधित्व करते नज़र आते हैं।
निराला
के राम भी इसी समय-विशेष में शक्ति के पुँज बनकर उपस्थित होते हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ के रूप में निराला राम के ऐसे
स्वरूप को सामने लाते हैं, जो रणक्षेत्र में हत्तोत्साहित हुए सैनिकों को पुनः
आन्दोलित करने की शक्ति से ओत-प्रोत हैं। वह अपनी समस्त साधना का कर्मफल राष्ट्र
के उद्धार के लिए न्योछावर करने के लिए तत्पर हैं। समस्त पूर्ववर्ती काव्यों में
वर्णित काव्यों से भिन्न निराला के राम के संबंध में रामविलास शर्मा की मान्यता
है, “निराला के इस महाकाव्य खण्ड में जो गरिमा राम की
ग्लानि, उनकी पराजय, महावीर के अन्तरिक्ष अभियान के चित्रण में है, वह पूजा के
चित्रण में नहीं। निराला साधक हैं, पूजक नहीं। साधना रणभूमि से अलग एकांत ध्यान
में नहीं है, रणभूमि में शत्रु से जूझते हुए ही साधना संभव है।”[14]
अतः निराला
पौराणिक संदर्भों में एक नया मोड़ देकर राम को भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम का
कर्णधार निर्मित करते हैं। वह एकान्त में बैठकर निराशा में आशा जगाने वाले तुलसी
के राम व केवल मानवीय गुणों से सुसज्जित गुप्त के राम से भिन्न आत्म-बलिदान तक के
लिए तत्पर शक्ति के अराधक हैं। निराला राम के इस स्वरूप का चित्र खींचते हुए लिखते
हैं –
“धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया
शोध।
जानकी। हाय, उद्धार प्रिया का हो न
सका।
x x x
कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह
पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।”[15]
इस
प्रकार निराला के राम भारतीय स्वतंत्रता के निर्णायक युद्ध में हताश जनता को पुनः
संगठित करने का कार्य करते हैं। यहाँ पौराणिक राम फिर अपना रूप बदलकर, मानवीय जीवन
की ज्योति प्रज्जवलित करते हुए, शक्ति अराधन द्वारा इस समर का अंत करते नज़र आते
हैं। युग की माँग के अनुसार यहाँ एक बार फिर राम अपने पूर्ववर्ती सभी चरितों से
भिन्न हो जाते हैं।
20वीं
शती के पाँचवे दशक में अनेक संघर्षों के पश्चात् जब भारतीय जन-मानस स्वतंत्रता को
प्राप्त करता है, तो उसका वास्तविक रूप उसे अपने स्वप्न की स्वतंत्रता से भिन्न
नज़र आता है। जिस भारत का स्वप्न जनता गुलामी के दिनों में देखा करती थी, वह
स्वतंत्रता के बाद के भारत को देख, खंडित हो गया था। ऐसे में जनता ने स्वयं को
ठगा-सा पाया। एक बार फिर कवियों के सामने चुनौती उत्पन्न हुई कि जनता की आवाज
सत्ता-लोलुप इन काले अंग्रेजों के सामने कैसे बुलंद की जाए? भारतीय लोक-मानस में विराजते राम में उन्हें फिर आशा की एक किरण नज़र आई।
उनकी लेखनी ने एक बार फिर राम के चरित्र को युग की आवाज के रूप में सृजित किया,
किन्तु इस बार राम न तो कोई विराट पुरुष थे और न ही किसी ईश्वरीय सत्ता के अवतार,
वह थे केवल जनता के प्रतिनिधि और प्रजातंत्र के संस्थापक। सर्वप्रथम बालकृष्ण
शर्मा ‘नवीन’ ने ऊर्मिला के चरित के
माध्यम से एक ऐसे राम से जनता को रु-ब-रु कराया, जो सत्ता-लोलुप इन नेताओं के
सामने प्रश्न-चिह्न की तरह खड़े हैं –
“राज-भोग-मय जीवन में वह
ओज कहाँ, आदर्श कहाँ?
चिन्तन-स्थिरता कहाँ? कहो वह
विमल-विचार विमर्श कहाँ?”[16]
यहाँ
राम उन सभी साम्राज्यवादी ताकतों के विनाशक हैं, जो अपने निजी स्वार्थ के लिए
दूसरों को अपना गुलाम बनाते हैं। यहाँ राम किसी भी प्रकार के अश्वमेघ यज्ञ के
आह्वाहक नहीं है, बल्कि मानवीय जीवन में आनंद और समरसता के संस्थापक हैं। ‘नवीन’ ऐसे राम का चित्रण करते हुए लिखते हैं-
“है साम्राज्यवाद का नाशक,
दशरथ-नंदन राम सदा,
है भौतिकता-वाद विनाशक,
जन-मन-रंजक राम सदा।”[17]
‘नवीन’ की ही भाँति सुमित्रानंदन पंत के ‘पुरुषोत्तम राम’ भी प्रजातंत्र के उद्घोषक हैं। वे सभी
धर्मों के सार मानवीय प्रेम के पालक हैं तथा मनुष्य की आन्तरिकता में निहित हैं।
पंत इस राम के संबंध में लिखते हैं-
“मैं ही था गांधी, भारत का
संविधान भी,
मैं ही शासन, सेना, रक्षा दल देशों
में,
संप्रति, भू विकास की स्थिति से मैं
ही अवरित
जूझ रहा अपनी अजेय संकल्प शक्ति से।
काल-रूप निज दिखा चुका तुझको गीता
में।
मानव का सहयोग मुझे प्रिय
क्रम-विकास हित।
धरा-स्वर्ग, इह-पर में मुझको करो न
खंडित,
मैं ही ईश्वर-नर, जो तुझमें बोल रहा
हूँ।
महानाश भी कालहीन मेरे स्पर्शों से
पलक मारते जी उट्ठेगा,- सृजक-काम
मैं।”[18]
इस
प्रकार राम मानवीय जीवन में नवीन मानवता लेकर उपस्थित हैं। वह आन्तरिक शक्ति का
पुँज हैं। इस युग तक आते-आते उनका चरित एक ऐसे नायक का रूप ले लेता है, जो मानवीय
साम्राज्य अर्थात् प्रजातंत्र की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध है। यह पंत की अपनी
निजी कल्पना-भर नहीं है, अपितु युग की माँग है, जिसके आधार पर वह पुरुषोत्तम राम
का सृजन करते हैं।
आधुनिक युगीन परिस्थितियों में विवेचित राम-कथा
के संदर्भ में रामलखन पाण्डेय मानते हैं, “चिन्तन
तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से पूर्ण इन रचनाओं ने इतिहास के यथार्थ सत्य को उभार
कर रखने में अधिक क्षमता प्राप्त की है।...चिन्तन प्रधान साहित्य की राम कथा
संबंधी वे रचनाएँ भगवान राम को परमात्मा तत्त्व से उतार कर साधारण मानव की कोटि
में रखने का प्रयत्न करती हैं।”[19] अर्थात् आधुनिक रचनाओं में विवेचित राम मनुष्य भूमि पर आकर तत्कालीन समाज
की सभी विकटताओं को नज़दीक से महसूस करते हैं। वह अवतारी रूप में केवल आदर्श
प्रस्तुत करने के लिए चित्रित नहीं होते, बल्कि जीवन की सभी चुनीतियाँ वह स्वयं
भोगते हैं। आधुनिक युगीन आतंकवाद, अराजकतावाद और युद्धों की दहलीज पर खड़े वर्तमान
विश्व के सामने राम नरेश मेहता की कलम से वह पुनः एक नया रूप लेकर उपस्थित होते
हैं। युद्धों की विभीषिका को न चाहने वाले राम मानवीय जीवन को लेकर चिंतित है।
नरेश मेहता राम के रूप में मनुष्य के इस संशय को चित्रित करते हुए लिखते हैं –
“धनुष, बाण, खड़ग और शिरस्त्राण।
मुझे ऐसी जय नहीं चाहिए,
बाण बिद्ध पाखी-सा विवश
साम्राज्य नहीं चाहिए।
मानव के रक्त पर पग धरती आती
सीता भी नहीं चाहिए।
सीता भी नहीं।
हाय
आज तक मैं निमित्त ही रहा
कुल के विनाश का
लेकिन
अब नहीं बनूँगा कारण
जन जन के विनाश का।”[20]
इस
प्रकार राम का स्वरूप विभिन्न युगों में परिस्थितियों के अनुसार बदलते हुए मानवीय
जीवन को नई दिशा प्रदान करता आया है। वाल्मीकि की राम कथा में वर्णित मानवीय सत्ता
के विराट व्यक्तित्व राम युगीन परिस्थितियों के अनुसार कभी दैविय सत्ता से
परिपूर्ण अवतारवादी, कभी मानवीय गुणों के पोषक करुणापुँज, कभी स्वतंत्रता-संग्राम
की हताशा में शक्ति-उपासक, कभी सत्ताधिशों को लताड़ते साम्राज्यवाद विरोधी, कभी
जीवन की जटिलताओं में युद्ध की विभीषिका से संशयित तथा कभी देश-काल की सीमाओं से
ऊपर सर्वहितकारी रूप ग्रहण कर मानवीय जीवन को गरिमा प्रदान करते रहे हैं। अतः कहा
जा सकता है कि युग-भेद के कारण राम के चरित्र में भी अन्तर आता चला गया है। यह राम
के चरित की ही महत्ता है कि प्रत्येक युग ने उसमें अपनी छवि तलाशी है।
सन्दर्भ सूची -
[5].
वाल्मीकि, रामायण, श्रीमद्वाल्मीकि रामायण(अनु.-चतुर्वेदी द्वारिकाप्रसाद शर्मा),
इलाहाबाद
: रामनारायण लाल प्रकाशन, 1950, पृष्ठ -853
[6].
वही, पृष्ठ - 854
[7].
शुक्ल, रामचंद्र, गोस्वामी तुलसीदास(बारहवां संस्करण), वाराणसी : नागरी प्रचारिणी सभा, 1976, पृष्ठ - 15
[9]. वही, पृष्ठ - 49
[11].
केशवदास, रामचंद्रिका(सम्पा.- डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल), वाराणसी : नागरी प्रचारिणी सभा, 1953 पृष्ठ- 3
[14].
त्रिपाठी, सूर्यकांत निराला, राग-विराग(सम्पा.- रामविलास शर्मा), इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, 2002, पृष्ठ - 25
[15].
वही, पृष्ठ - 101
[17].
वही, पृष्ठ - 555
अंकित (शोधार्थी)
हिंदी-विभाग,
पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़।
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