सहनिवास की अवधारणा और हिंदी कथा-साहित्य के संदर्भ

          सहनिवास की अवधारणा के संदर्भ में समकालीन हिंदी कथा-साहित्य

       मनुष्य के जीवन का विकास क्रमशः आदिवासी जीवन से कबिलाई जीवन - ग्राम्य जीवन – प्रांतीय जीवन व आधुनिक युग में नगरीय जीवन से महानगरीय जीवन में विकसित हुआ देखा जा सकता है। मनुष्य निरन्तर समीप आते गए हैं। तत्कालीन बाजारीकरण की ऊहापोह में अधिक से अधिक मुद्रा अर्जन एक ओर जहाँ उसे अपने स्थानीय परिवेश से विलग करती है, वहीं दूसरी ओर यह पारिवारिक संस्था को भी तोड़ती है। संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में बदलना महानगरीकरण का ही एक परिणाम है और दूसरा व्यस्त जीवन को जन्म। व्यस्त जीवन की अतिश्यता वैवाहिक संस्था को कमजोर करती है और विभिन्न जिम्मेदारियों से अलग सहजीवन की स्थिति को ऊपजने का क्षेत्र प्रदान करती है। समानता, स्वतंत्रता व जीवन के बुनियादी अधिकारों के परिवेश में विविध पूर्व-प्रचलित संस्थाओं व संस्कारों के पुनः निरीक्षण के वर्तमान युग में कामकाजी समाज के पुरुष व स्त्री सहनिवास को जीवन जीने का अधिकार स्वीकारते हैं। हम यहाँ सहनिवास की इस समकालीन माँग के संदर्भों को हिंदी कथा-साहित्य के माध्यम से समझने का प्रयत्न करेंगे।
 सहनिवास से अभिप्राय -
                                          सहनिवास को बहुतायत में लिव-इन-रिलेशनशिप कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत पुरुष-स्त्री बिना विवाह किए आपसी सहमति से एक साथ रहते हैं। यह एक ऐसा संबंध है जो शादी की भाँति एक जोड़े को साथ रहने की अनुमति प्रदान करता है1 प्रभात बृहत हिंदी कोश में इसे सह + निवास के रूप में दर्शाते हुए एक साथ रहने वाले2 के रूप में वर्णित किया गया है। एक अन्य स्थान पर इसके विषय में लिखा गया है किबिना वैधानिक विवाह के स्त्री-पुरुष का जोड़े के रूप में स्थायी तौर पर या लम्बी अवधि के लिए साथ रहने लगना सहजीवन कहा जाता है। यद्यपि अंग्रेजी में इस प्रकार के संबंध को Cohabitation कहा जाता है अथवा Living Together , किन्तु भारत में इसके लिए प्रचलित शब्द लिव-इन-रिलेशनशिप हो गया है।3
       उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्वीकारा जा सकता है कि सहनिवास एक ऐसी अवधारणा है जिसमें स्त्री व पुरुष बिना विवाह किए साथ रहने व जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है तथा अपने – अपने लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं।
कानूनी धारणा व अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य   
                                                             भारतीय उपमहाद्वीप वैवाहिक संस्था का परिचायक रहा है जिसमें सनातन काल से विवाहोपरांत स्त्री-पुरुष को साथ रहने व सामाजिक भागीदारी निभाने का अधिकार प्रदान किया गया है, किन्तु पाश्चात्य प्रभाव व पूँजीवादी युग ने वर्तमान समय में व्यक्ति के लिए अनेक चुनौतियाँ उत्पन्न कर दी हैं जिसके कारण पूर्व प्रचलित अनेक संस्थाएँ अब टूटने लगी हैं, जिनमें विवाह भी एक है। भारत में प्रथम बार 23.03.2010 को के.जी. बालकृष्णन, दीपक वर्मा व बी. एस. चौहान की न्यायपालिका ने सहनिवास को जुर्म से परे करते हुए इसे मान्यता प्रदान की। भारत की संविधानिक धारा – 125 के अन्तर्गत सहनिवास को कानूनी मान्यता दी गई है, किन्तु सामाजिक परिदृश्य पर आज भी सहनिवास को निकृष्टता की दृष्टि से ही देखा जाता है। भारत के अतिरिक्त विभिन्न अन्य देशों में भी इसे कानूनी मान्यता व संरक्षण प्रदान किया गया है जो निम्नलिखित प्रकार से है –
“1. स्कॉटलैंड में परिवार कानून 2006 के अन्तर्गत धारा – 25,26 व 29 के तहत इसे अधिकार का दर्जा दिया गया है।
2.   आस्ट्रैलिया में परिवार कानून 1957 के अन्तर्गत धारा – 4(AA) के अन्तर्गत इसे कानूनी मान्यता दी गई है।
3.   कनाडा में अधिनियम RSO 1990 की धारा 54(1) के अन्तर्गत इसे कानूनी दर्जा प्रदान किया गया है।
4.   संयुक्त संघ में Civil Partnership 2004 के अन्तर्गत इसे संरक्षण प्रदान किया गया है।
5.   फ्रांस में Civil Solidarity Pact Oct.13, 1999 के अन्तर्गत इसे कानूनी मान्यता प्रदानकी गई है।4
विभिन्न देशों ने सहनिवास को कानूनी मान्यता देते हुए, इसे जीवन जीने की एक सहज इच्छा के रूप में विवेचित किया है, जिसमें स्त्री व पुरुष एक-दूसरे को बराबरी का दर्जा देते हुए साथ रहते हैं। अबलिव इन संबंध बदलते आर्थिक-सामाजिक परिवेश की ज़रूरत बन चुके हैं। आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में यह दो लोगों के लिए न केवल आर्थिक सामंजस्य का मसला बन चुका है बल्कि यह भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है।5 अर्थात् परिवार के विशद बोझ की अपेक्षा आज के यूवा सहनिवास को जीवन की स्वतन्त्रता का पर्याय स्वीकारते नज़र आते हैं।
हिंदी कथा-साहित्य और सहनिवास
                                                         साहित्यकार समाजचेत्ता होते हुए परिवेशगत परिवर्तन को अपनी लेखनी द्वारा न केवल उद्धृत करता है बल्कि उसे एक नई दिशा भी प्रदान करता है। सामाजिक परिवर्तन के प्रत्येक पहलू का एक सशक्त लेखक बारीकि से अध्ययन करता है और उसकी विविध परतों को अपनी लेखनी द्वारा विश्लेषित करता है। इस प्रकार बाजारवाद, पूँजीवाद व भूमंडलीकरण के समकालीन परिवेश में ऊपजी सहनिवास की अवधारणा से वर्तमान साहित्यकार व हिंदी कथा-साहित्य अनभिज्ञ नहीं हैं। हिंदी कथा-साहित्य में इस स्वर की पहले-पहल झलक प्रेमचंद के साहित्य में मिलती है। 1936 ई. में रचित उपन्यास गोदान में मालती व मेहता का जीवन विवाह संस्था की पड़ताल है। मालती व मेहता दोनों ही शिक्षित हैं तथा समाज को एक नई दिशा देने के लिए तत्पर हैं। किन्तु वह दोनों विवाह के बोझिल बंधन में बंधना नहीं चाहते हैं। लिव-इन-रिलेशनशिप की तात्कालीक रूपरेखा मालती के इस कथन में देखी जा सकती है – नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अन्त में मैंने यह तय किया है कि मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझ पर विश्वास करते हो, और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा – प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदर्शक ही नहीं, अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम पर विश्वास करती हूँ,...हमारी पूर्णता के लिए, हमारी आत्मा के विकास के लिए और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बनाकर, अपनी आत्माओं को छोटे से पिंजडे में बन्द करके, अपने दुख-सुख को अपने ही तक रखकर क्या हम असीम के निकट तक पहुँच सकते है? वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा।...मेरा क्या अन्त होगा, किस घाट लगूँगी, पर चाहे वह कोई घाट हो, इस बंधन का घाट न होगा, बोलो, मुझे क्या आदेश देते हो।6 मालती विवाह को मानवता के कल्याण का मार्ग नहीं स्वीकारती, बल्कि वह तो स्त्री-पुरुष को दोस्त के रूप में साथ रहते हुए एक-दूसरे का सहारा बनकर लोक-कल्याण का मार्ग बनाने को सही स्वीकारती है। आत्मा की पूर्णता के लिए स्वीकारा जाने वाला विवाह मालती को स्वीकार्य नहीं है वह इस पथ को बाधा ही पाती हैं। उपन्यास अमृत और विष की पात्रा उमा माथूर तो इससे भी आगे बढ़कर शारीरिक संबंधों को केवल शारीरिक इच्छा के रूप में स्वीकारती हैं, जिसके लिए विवाह के बंधन में बंधना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है, बल्कि इसे शरीर की सहज माँग स्वीकारते हुए कहती हैं – मेरी साफ गोई पर हैरत होती है? तुम्हारा नज़रिया बहोत ही पुराना मालूम देता है, खन्ना। इस तरह तो नये जमाने में तुम तरक्की करने से रहे। वो सती-वती वाला बोसीदा दृष्टिकोण अब भी चलाना चाहते हो? और अपने आपको सोशलिस्ट भी मानते हो? ये सब बेहूदा बकवास है। औरत मर्द का मिलना एक शारीरिक जरूरत है। भूख प्यास की तरह सेक्सुअल अर्ज(कामेच्छा) भी एक कुदरती और शारीरिक जरूरत है और उसे पूरा ही करना चाहिए7 अमृतलाल नागर समाज में स्त्री-पुरुष के सहज जीवन की नब्ज़ पहचानते थे। उन्होंने रोजगार की तलाश में भटकते यूवाओं के मन को सहज अभिव्यक्त किया है, जो विवाह को पूरे जीवन के लिए एक बोझ के रूप में देखते हैं। वर्तमान समाज में जहाँ एकल परिवारों का चलन हो चुका है, परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने लिए स्वयं जिम्मेदारी महसूस करने लगा है। स्त्री-पुरुष समान रूप से कार्यालयों में देर तक काम करते हैं और बराबरी का धन कमाते हैं। ऐसी स्थिति में जहाँ कामकाजी समाज के लिए विवाह के विभिन्न दायित्वों को निभाना सहज नहीं लगता, वहीं अब प्रेम विवाह से भी आगे लोग किसी समझौते के आधार पर साथ रहना बेहतर मानने लगे हैं। उपन्यास कितने पाकिस्तान के अदीब व सलमा दो ऐसे ही प्रेमी हैं, दोनों लिव-इन-रिलेशनशिप में रहते हैं और विवाह को प्रेम की कोई अनिवार्य कसौटी नहीं स्वीकारते हैं। विवाह संस्था के ठेकेदारों द्वारा इनके प्रेम को पाप व अपवित्र करार दिया जाता है। इनके साथ हो रहे अत्याचारों के बीच इतिहास पुरुष का यह कथन इन्हें जीवित रखता है  – तुम दोनों इस अविष्कार के अगले प्रयोगों के वैज्ञानिक हो...तुम खुद वह अखंड ज्योति हो...तुम दोनों उसी जलती ज्योति के कारण दिन हो...तुम्हारे पास जो उजाला है, वह इसी का है... यह उजाला कभी समाप्त नहीं होता। दिन कभी रात नहीं बनता। जब क्यूपिक और इस इलाके में घनघोर बादल छा जाते हैं, अंधेरा छाने लगता है, तब भी वह प्रतीती बनी रहती है कि अभी रात नहीं है, दिन है। उसी तरह तुम्हारे सम्बन्ध पाप की प्रतीती नहीं, वह पुण्य-प्रतीक हैं।8 यह अभयदान केवल सलमा व अदीब के लिए ही नहीं है बल्कि सहनिवास में रह रहे उन सभी स्त्री-पुरुषों के लिए है जो अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं। समकालीन परिवेश में विभिन्न जगहों पर धर्म, समुदाय, परिवार, मर्यादा, इज्जत आदि की दुहाई देकर जीवन की मौलिक स्वतन्त्रताएँ हनित होती देखी जा सकती हैं। भारतीय संस्कृति में जहाँ गन्धर्व विवाह, नियोग मार्ग जैसी व्यापक परम्पराएँ अपने प्रभावी रूप में प्रचलित थीं, वहाँ बाल-विवाह, शती-प्रथा व कट्टर वैवाहिक बाध्यताओं का पनपना गुलामी का ही सूचक दृष्टिगोचर होता है। समकालीन परिवेश में अधिकारों की माँग चाहे वह पोशाक, खान-पान, रहन-सहन व ऐच्छिक विवाह ही क्यों न हों, परवश में नजर आते हैं। यदि कोई युगल इस परवशता का विरोध करता है तो वह बेघर कर दिया जाता है। जिस समाज में विवाह की नींव यौन-शुचिता पर रखी जाती है, वहाँ की विवाह संस्था को प्रेम-पुँज स्वीकारना अस्वाभाविक सा लगता है। समकालीन यूवा-वर्ग इसे तोड़ रहा है व सहजीवन के मार्ग को अपना रहा है। ममता कालिया का उपन्यास बेघर विजया व परमजीत वालिया की जीवन कथा के माध्यम से लिव-इन-रिलेशनशिप के सामाजिक संदर्भों की ही जाँच-पड़ताल है। परमजीत का विजया के साथ संबंधों में रहना व इसका उसे पूरे परिवार द्वारा स्वीकार इस कानूनी अधिकार की सामाजिक स्वीकृति परिलक्षित होती है। इसके विषय में उपन्यास दर्शाता है कि – इस घर में शायद आश्चर्य इतने थे कि परमजीत अब चकित भी नहीं हो रहा था। बहन की बातों का मतलब यह निकलता था कि घर पर सबतो पता है कि विजया वालिया के साथ रहती है।9 इसके कहीं आगे बढ़कर उपन्यास रेहन पर रग्घू में काशीनाथ सिंह द्वारा वैवाहिक संस्था के अन्त की विशद गाथा व सहनिवास की संस्कृति के विकास का व्यापक विश्लेषण किया गया है। उपन्यास के सभी पात्र स्वयं रग्घूनाथ, उसकी पुत्री-सरला, दोनों पुत्र- संजय और घनंजय आदि सभी वैवाहिक संस्था के तथाकथित स्वरूप से जकड़न महसूस करते हैं और अपने प्रेमी के साथ सम्मान व जिम्मेदारी के साथ रहना चाहते हैं। रग्घूनाथ जो प्रचलित रीति से वैवाहित है, विवाह के बाद तनाव व जिम्मेदारियों की बली चढ़ जाता है। उसके बच्चे इस परिपाटी में नहीं जीना चाहते हैं। वह उस संबंध को साध्य व स्वीकार्य मानतें हैं जिसमें दोनों के लिए स्पेस हो। सरला का कथन इसकी पुष्टि करता है – जो भी गलत काम करता है, उसके पक्ष में तर्क गढ़ लेता है। उसने भी गढ़े थे – आप दूसरों की शर्तों पर शादी कर रहे थे, यहाँ मैं करूँगी लेकिन अपनी शर्तों पर ; आप मेरी स्वाधीनता दूसरे के हाथ बेच रहे थे, यहाँ मेरी स्वाधीनता सुरक्षित है ; आप अतीत और वर्तमान से आगे नहीं देख रहे थे, हाँ मैं भविष्य देख रही हूँ जहाँ स्पेस ही स्पेस है।10 इसके अतिरिक्त धनंजय का के. विजया के साथ रहना इस संबंध की इस परत को खोलता है कि इसमें दोनों समान रूप से भागीदार व जिम्मेदार होते हैं तथा ऊब व घुटन लगने पर इस संबंध से विलग हो सकते हैं। धनंजय का अपनी भाभी सोनल को यह उत्तर इसे स्पष्ट करता है – सोनल ने आश्चर्य से धनंजय को देखा –तुम दोनों एक ही छत के नीचे रह रहे हो जाने कब से और बच्ची पापा बोल रही है तुमको और शादी भी नहीं की – मामला क्या है”? धनंजय मुसकराया – भाभी, मामला कुछ नहीं है। बात सिर्फ इतनी है कि उसे मेरी जरूरत है, और मुझे उसकी।11 सहजीवन की अवस्था में पारिवारिक जिम्मेदारियों व दायित्वों का समान रूप से निर्वाह करना व एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करना मुख्य उद्देश्य रहता है। एस. आर. हरनोट ने अपने उपन्यास हिडिम्ब में सहनिवास के रूप में रहने के प्रस्ताव को ऐरी नामक विदेशी पात्र के संवादों से स्पष्ट किया है। एरी शावणू से कहता है – मेरा मतलब है कि सूमा के साथ मैं एक राजीनामा यानी करार करूँगा जो पूर तीन साल तक का होगा। इस दौरान सूमा मेरी पत्नी के रूप में मेरे साथ रहेगी। उसके बदले मैं आप लोगों को दो लाख रुपये दूंगा। यदि इस दौरान बच्चा हो गया तो एक लाख और दे दूंगा। बच्चे के पूरे हक – हकूक सूमा के होंगे।12 प्रसिद्ध साहित्यकार चन्द्रकान्ता के कहानी-संग्रह अलकटराज़ देखा में संकलित कहानी थोड़ा सा स्पेस अपने लिए में ईशा और वरूण नामक पात्र सहनिवास में रहते हैं। दोनों ही बचपन से सहपाठी हैं और दोनों नौकरी करते हुए परदेश में एक साथ रहते हैं। दोनों ही सहनिवास के विषय में पारिवरिक मान्यताओं का विरोध करते हैं और कहते हैं – मम्मा । किस जमाने में रह रही हो? ईशा मेरे बराबर ही पढ़ी-लिखी है, बराबर वेतन पाती है। माँ –बाप को भारी चेकस भेजती है। उसे तो हक है अपने फैसले अपने आप लेने का। - सो तो है, लेकिन यह लिव-इन-रिलेशनशिप? हमारे यहाँ तो यह कभी नहीं हुआ।13 इससे भी आगे बढ़कर उपन्यास अलकनंदा में नंदकिशोर नैटियाल ने मोहन व अलकनंदा के माध्यम से न केवल सहजीवन का चित्रण किया है बल्कि समाज के अन्य जनों द्वारा प्रचलित विवाह पद्धति से लिव-इन-रिलेशनशिप को स्वीकार्य दर्शाया गया है। उपन्यास में वकील लालसिंह नरेन्द्र से मोहन व अलकनंदा के संबंध के विषय में वर्तालाप करते हुए समाज में विवाह व प्रेम-विवाह की तल्खी के बीच सहजीवन के विषय में कहता है – वकील : क्या वह मोहन से प्यार नहीं करती...या मोहन उससे प्यार नहीं करता...समाज में ऐसे बहुत से जोड़े हैं जो एक-दूसरे के साथ रहने को संधिबद्ध हैं, जिन्होंने प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं, जिन्हें प्यार कभी मिला ही नहीं। जुड़ाया हुआ विवाह ऐसी प्रथा है जो प्यार का नहीं, संधि का प्रतिफल है। इसी प्रकार तथाकथित प्रेम विवाह भी कभी-कभी तल़्खी में बदल जाते हैं। सवाल है कि मोहन और अलकनंदा किस कटैगरी में आते हैं।14 भारतीय परिवेश में माता-पिता व परिवार-जनों द्वारा अपनी पसंद से शादी कर देना और सारी उम्र उसी के बोझ तले दबते हुए अपमानित व शोषित होकर रहने के विषय पर प्रकाश डाला गया है। हेमा और मधुलिका के द्वारा सहजीवन को विवाह से अधिक गौरवमयी दर्शाते हुए लिखते हैं – हेमा : रिश्ते हमारे परिवार की ओर से भी भेजे जाते रहे...और कई आये भी थे...लेकिन जम नहीं पाये...अब जीवन भर साथ करना हो तो पसंद तो होनी चाहिए न मधुलिकाजी...कोई मुझे नहीं जँचा, किसी को मैं नहीं जँची...कहीं जात-पात आड़े आयी तो कहीं रूचियाँ। कहीं खानपान में नॉनवेज-वेज...किंतु एक बात में कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी मैं वह है मेरा संगीत...और बस अब तक शादी नहीं हुई...अम्मा, हाँ बाबा(पिता) से ज्यादा अम्मा को मेरे ब्याह की चिंता है। हर भले आदमी से लड़का ढूढ़ने को कहती हैं...यह नहीं समझती कि ढूढ़ने से आराध्य कहाँ मिलता है वह तो संयोग से, साधना से हासिल होता है...मैं समझती हूँ शादी-ब्याह जीवन का साध्य नहीं है। वह एक उपादेय है जीवन का, लेकिन वह जीवन जीने की शर्त नहीं है।15 पाश्चात्य परिवेश (फिनलैंड) में लिव-इन-रिलेशनशिप को मान्यता व समाजिक स्वीकार मिला है जिसकी झलक उपन्यास में देखी जा सकती है। अनुज व कैथरीना का संवाद इसे स्पष्ट करता है – अनुज : समस्याएँ तो हल हो सकती हैं। तुम अपनी मर्जी से उसके साथ रहती हो ...लिव-इन-रिलेशनशिप है उसके साथ तुम्हारी? कैथरीना : जो कभी भी तोड़ी जा सकती है। एक रूम-पार्टनर होने से ज्यादा है क्या वह? यह ब्याह का पवित्र बंधन तो है नहीं, जिसको कानूनी और समाजी दोनों मान्यतों होती हैं। अलकनंदा मैं तुमसे फिर कहती हूँ...कुछ दिन के लिए तुम हेलसिंकी चली आओ। उसके घर में मत रहो। कितना आसान समझती है यह योरपीय औरत नाता तोड़ देना।16 इसके साथ-साथ कैथरीना पाश्चात्य देशों में विवाह संस्था के टूट जाने व लिव-इन-रिलेशनशिप के जन्म के विषय में अलकनंदा को बताती है कि – फिनलैंड में, योरप के लगभग सभी देशों में, सभी समृद्ध पश्चिमी देशों में स्त्री-पुरुष संबंध बनते रहते हैं, बिगड़ते रहते हैं, शादियाँ होती हैं, तलाक होते हैं। एकाकीपन खलता है। पुनर्विवाह कर लेते हैं। बिना विवाह के भी साथ रहने लगते हैं। बच्चे होते हैं। थोड़ी-सी इलोशनल परेशानी और बस। भरण-पोषण के लिए कोई किसी पर आश्रित नहीं, न औरत न मर्द। सब अपनी-अपनी आजीविका चलाते हैं। इसलिए किसी पर परिवार की जिम्मेदारी नहीं होती। न बूढ़ों की जिम्मेदारी और न बच्चों की और न ही बेरोजगारों की। सारा दायित्व सरकार का होता है। परिवार प्रणाली कब की टूट चुकी है वहाँ। एक नई प्रथा जन्म ले चुकी है।17 और यह प्रथा है सहनिवास, जो नैतिक मान्यताओं के तथाकथित समाज से अलग सहज विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
                  हिंदी कथा-साहित्य की  समाजिक अभिव्यक्ति में सन्धि व समझौते के आधार पर रह रहे युगल की सामाजिक स्वीकृति कम होते हुए भी, उसे जीवन की स्वतन्त्रता व विशेषकर स्त्री के साथ किए जाने वाले पाशविक व्यवहार से मुक्ति का पर्याय स्वीकारा जाने लगा है। विशेषकर कामकाजी समाज से जुड़े हुए पुरुष व स्त्री परदेश में रहते हुए पारिवारिक समझौते पर आधारित वैवाहिक संबंधों को सिरे से नकारते नज़र आते हैं तथा समान जिम्मेदारी के धरातल पर सहजीवन के मार्ग का आश्रय लेते हैं। सामाजिक ठेकेदारों के लिए यह अभी उस रूप स्वीकार करना असह्य लग रहा है किन्तु कानूनी मान्यताओं के आवरण में पनप रहा यह संबंध अब अपने विकास के प्रथम चरण को पार कर चुका है।

सन्दर्भ सूची
11.  Vaagartha.blogspot.in/2003/9-11 Apr.2015. 3.32pm
  2.  वर्मा, श्याम बहादुर, प्रभात बृहत हिन्दी कोश, नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन, 2008, पृष्ठ -2507
  3. Vaagartha.blogspot.in/2003/9-11 Apr.2015. 3:32pm
  4.  www.advocatekhoj.com,11 Apr.2015. 3:41pm
  5. forum.jagranjunction.com/2013/12, 11 Apr.2015. 3:41pm
   6. प्रेमचंद, गोदान(द्वितीय संस्करण), नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ -350-351
  7. नागर, अमृतलाल, अमृत और विष, इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, 1966, पृष्ठ -217
  8.  कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान (उन्नीसवां संस्करण), नई दिल्ली : राजपाल एण्ड संस, 2014, पृष्ठ – 130
  9.   कालिया, ममता, बेघर, नई दिल्ली : साक्षरा प्रकाशन, 2002, पृष्ठ -40
  10.   सिंह, काशीनाथ, रेहन पर रग्घू, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2008, पृष्ठ -54 
  11.   वही, पृष्ठ -130
  12.   हरनोट,एस., आर.,हिडिम्ब, पंचकूला : आधार प्रकाशन, 2004, पृष्ठ -185
  13.   चन्द्रकान्ता, अलकटराज़ देखा?, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2013, पृष्ठ -13
  14. नौटियाल, नंदकिशोर, अलकनंदा, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2012, पृष्ठ -44
  15.   वही, पृष्ठ-127
  16.   वही, पृष्ठ-247

  17.   वही, पृष्ठ -250

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