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सहनिवास की अवधारणा और हिंदी कथा-साहित्य के संदर्भ

          सहनिवास की अवधारणा के संदर्भ में समकालीन हिंदी कथा-साहित्य        मनुष्य के जीवन का विकास क्रमशः आदिवासी जीवन से कबिलाई जीवन - ग्राम्य जीवन – प्रांतीय जीवन व आधुनिक युग में नगरीय जीवन से महानगरीय जीवन में विकसित हुआ देखा जा सकता है। मनुष्य निरन्तर समीप आते गए हैं। तत्कालीन बाजारीकरण की ऊहापोह में अधिक से अधिक मुद्रा अर्जन एक ओर जहाँ उसे अपने स्थानीय परिवेश से विलग करती है, वहीं दूसरी ओर यह पारिवारिक संस्था को भी तोड़ती है। संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में बदलना महानगरीकरण का ही एक परिणाम है और दूसरा व्यस्त जीवन को जन्म। व्यस्त जीवन की अतिश्यता वैवाहिक संस्था को कमजोर करती है और विभिन्न जिम्मेदारियों से अलग ‘ सहजीवन ’ की स्थिति को ऊपजने का क्षेत्र प्रदान करती है। समानता, स्वतंत्रता व जीवन के बुनियादी अधिकारों के परिवेश में विविध पूर्व-प्रचलित संस्थाओं व संस्कारों के पुनः निरीक्षण के वर्तमान युग में कामकाजी समाज के पुरुष व स्त्री ‘ सहनिवास ’ को जीवन जीने का अधिकार स्वीकारते हैं। हम यहाँ सहनिवास की इस समकालीन माँग के संदर्भ...

ब्लाोग की शुरुआत

नमस्कार