“ उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व शासकीय मूल्यों का होता है। ” 1 ‘ तमस ’ के इस अंश को पढ़कर मन में एक गहन वेदना की अनुभूति तो होती ही है, साथ ही एक प्रश्न भी उभरता है कि क्या सच में शासकीय मूल्यों के समक्ष मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं ? क्या सच में , मानवता प्रशासन के कुत्सित कृत्यों और षड़यन्त्रों के बीच दम तोड़ रही है ? क्या चारों तरफ फैला यह घोर अमानवीय और दुर्दान्त अन्धकार ही अब जीवन को पारिभाषित करेगा ? इसे जीवन की विडम्बना कहें या जान-बूझ कर उसके साथ खेला जाने वाला घिनौना खेल, पर यही सच है कि शासन की भूख अनादिकाल से मनुष्यता पर प्रहार करती आई है, फिर चाहे वो महाभारत काल हो, स्वाधीनता संग्राम हो या फिर वर्तमान पूँजीवादी युग, घायल सदैव मानवता ही हुई है। शासन की भूख ने तो बड़े-बड़े देशों से तांडव नृत्य कराया है। 16वीं सदी में व्यापारी का वेश-धारण कर भारत आने वाले यूरोपीय देशों ने शासन की इसी भूख से पराभूत हो, भारत जैसे समृद्ध देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ लिया था। जो धार्मिक आस...
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