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युग के अनुरूप राम का बदलता स्वरूप (प्रतिनिधि राम-काव्यों के परिप्रेक्ष्य में)

                “ प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। ” [1] अतः प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग की मूल प्रवृत्तियों का संवाहक होता है ; उसका अपने युग से अविच्छिन्न संबंध रहता है। साहित्यकार युगीन संदर्भों के आधार पर कभी नवीन कथाएँ गढ़ता है तथा कभी पूर्व प्रचलित कथाओं का आधार ग्रहण कर उनमें नए अर्थ भरता है, ताकि वह अपने युग का मार्ग प्रशस्त कर सके। प्रेमचंद के अनुसार- “ साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है ; पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है। ” [2] अर्थात् प्रत्येक स्थिति में वह अपने युग के लिए बेचैन रहते हुए सृजन के मार्ग पर अग्रसर होता है। वह समाज को दिशा देने के लिए लोक-हृदय में स्थ...

‘साम्राज्यवाद' का तमस : उपन्यास तमस

“ उसे लगा जैसे मानवीय मूल्यों का महत्त्व नहीं होता, वास्तव में महत्त्व शासकीय मूल्यों का होता है। ” 1 ‘ तमस ’ के इस अंश को पढ़कर मन में एक गहन वेदना की अनुभूति तो होती ही है, साथ ही एक प्रश्न भी उभरता है कि क्या सच में शासकीय मूल्यों के समक्ष मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं ? क्या सच में , मानवता प्रशासन के कुत्सित कृत्यों और षड़यन्त्रों के बीच दम तोड़ रही है ? क्या चारों तरफ फैला यह घोर अमानवीय और दुर्दान्त अन्धकार ही अब जीवन को पारिभाषित करेगा ?           इसे जीवन की विडम्बना कहें या जान-बूझ कर उसके साथ खेला जाने वाला घिनौना खेल, पर यही सच है कि शासन की भूख अनादिकाल से मनुष्यता पर प्रहार करती आई है, फिर चाहे वो महाभारत काल हो, स्वाधीनता संग्राम हो या फिर वर्तमान पूँजीवादी युग, घायल सदैव मानवता ही हुई है। शासन की भूख ने तो बड़े-बड़े देशों से तांडव नृत्य कराया है। 16वीं सदी में व्यापारी का वेश-धारण कर भारत आने वाले यूरोपीय देशों ने शासन की इसी भूख से पराभूत हो, भारत जैसे समृद्ध देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ लिया था। जो धार्मिक आस...