बकरी पाती खाती है ताकि काढि खाल, जो जन बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल
समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में अपना
विशिष्ट स्थान बना चुके सत्यनारायण पटेल हाशिये पर धकेली जा रही मानवीय अस्मिता के
पैरोकार हैं। सजह ढंग से अपनी कथा को किस्सों में पिरोकर प्रकट करना इनकी अपनी
विशिष्ट शैली है। अपने कहानी लेखन के विषय में एक साक्षात्कार में इन्होंने स्वयं
कहा था, “मैंने देहात की दुर्दशा और कठिनाइयों को बेहद नजदीक से देखा है। इसी ने
मुझे कहानीकार बनने को विवश कर दिया था। सच कहूं तो आधुनिकता के बावजूद देहात अब
भी दुर्भाग्य की बस्तियाँ मानी जाती हैं और वहाँ पैदा हुए इंसान को दुर्भाग्य की
संतान।”[1] देहात की स्मृति के किस्से ही इनकी कहानियों के कथानक बनकर सामने आए हैं।
अन्योक्ति शैली में व्यग्य की बेजोड़ ताकत लिए इधर इनका नया काहनी-संग्रह ‘काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लिस’ अपनी अनुठी संवदनाओं के
कारण खूब चर्चित हो रहा है। रोहिणी अग्रवाल की मानें तो इस कहानी-संग्रह में “लेखक ने कहानी दर कहानी पाठक से अपने वक्त को नई आँख से देखने और नई तरकीब
के साथ गढ़ने की अपील की है।”[2] जादुई यथार्थवाद का पुट लिए कुल 6 कहानियों से युक्त यह संग्रह समसामयिक
विमर्शों को फिर से खंगालने के अवसर प्रदान कर, पर्दे के पीछे चलने वाले आच्छादित
सत्य तक पहुँचने की कोशिश करता है। विकासपरक शोषण, बौद्धिकतापरक ठगी,
धर्मनिष्ठतापरक दकियानुसी और अन्यायपरक शासन व्यवस्थाओं को परत-दर-परत विश्लेषित
करता यह कहानी-संग्रह बिजूकाओं को काफ़िरों की क्षेणी में ला खड़ा करता है। ‘पर पाजेब न भीगे’, ‘घट्टी वाली
माई’, ‘एक था चिका एक थी चिकी’, ‘ठग’, ‘न्याय’, ‘काफ़िर बिजूका उर्फ
इब्लिस’ नामक इस संग्रह में संकलित यह छह कहानियाँ अपने
नामकरण के साथ ही बेजोड़ हैं।
विभिन्न विकासपरक योजनाओं के कारण
अपनी जगह, ज़मीन और काफ़ी हद तक अपना जीवन गवां देने वाले समाजों के दर्द की
दास्तान व्यक्त करती कहानी ‘पर पाजेब न
भीगे’, संवेदनाओं को सरस बनाकर योजनाओं को कटघरे में खड़ा
करती है। लेखक ‘बंजारा बाँध’ का किस्सा
रख ज़रूरत के लिए हो रहे विकास और पूँजीपतियों के मुनाफे के लिए हो रहे विकास के
बीच का अंतर सामने रखते हैं। लेखक लिखते हैं, “बाँध तो
दुनिया भर की नदियों पर अब भी ख़ूब बन रहे हैं, पर उन्हें प्रेमी बंजारा नहीं,
कम्पनियाँ बना रही हैं। अब पाज़ेब और उसकी घूँघरी के न भीगने की बात छोड़ो, घर-खेत
और गाँव तक बचाना मुश्किल हो रहा है। वाक़ई समय बदल रहा। विकास की गंगा बह रही
दिन-रात। डूब रहा सुख-चैन।”[3] लोगों के घरों तक पहुँचने वाले विकास और कम्पनियों के विकास का अंतर यह
साफ़ दिखाता है कि योजनाओं में कहाँ क्या हो रहा है।
लिखित इतिहास में न तो ऐसे बंजारों
का कहीं जिक्र है और न ही घट्टी वाली माई का, जिन्होंने अपनी योजनाओं का
क्रियान्वयन अर्थ-लाभ के लिए नहीं, बल्कि ज़िन्दगी की बुनियादी सुविधाएँ सभी को
उपलब्ध कराने के लिए किया था। लेखक लिखते हैं, “समय की नदी बहती रही दिन-रात। देश की नदियों पर दानवी कब्जा बढ़ता रहा
रात-दिन। अब तक जीवनदान देने वाली नदी। जीवन हरने बढ़ने लगी क़दम दर क़दम। घट्टी
वाली माई के गाँव की माँएँ, बेटियाँ, बहनें और भाई जल-सत्याग्रह करने लगे।
देश-प्रदेश के राजा-महाराजा और मंत्रियों की देश-विदेश में यात्राएँ जारी रहीं।
जंगल, ज़मीन और नदी के पानी के सौदे जारी रहे। रियाया के काम का ही नहीं, जान तक
का सौदा जारी रहा।”[4] शासकों के चुनावी जुमलों और कागजी वादों को सामान्य जन के बीच बेधड़क
रखते पटेल केवल नीति और नेता पर ही प्रश्न नहीं उठाते, बल्कि कठमुल्ला होती
संस्कृति, धार्मिकता और जीवन-शैली से भी दो-चार होते हैं। कितनी ही चिकी अपना
सर्वस्व न्योछावर कर पुरुष सत्ता को सँवारने में गुम हो जाती हैं तथा लोक-स्मृति
उन्हें बेबसी के तौर पर देखती है और पुरुष की अनुगामिनी भर बना देती है, यह पटेल
को अंदर तक कचोटता है। तभी वे ‘एक था चिका एक थी चिकी’ के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की टोह लेने लगते हैं। वह लिखते हैं, “अब चिकी का न आसमान है न ज़मीन। वह तीसरे माले पर दो कमरों में क़ैद है,
जो चिका के आने पर थर-थर धूजने लगती है।”[5]
अपनी समस्त जमात को लोगों की नज़रों
में काफ़िर महसूस करते आमिर की कथा न्याय-प्रणाली का अनदेखा, किंतु लोक-स्मृति में
रचा-बसा सच बेबाकी से प्रस्तुत करती है। प्रेम के सौहार्द सपनों में डूबे गुलबानो
और आमिर सियासत के जातिभेद, धर्मभेद और नस्लभेद की भेंट चढ़ जाते हैं। अब आलम यह
हो रहा है कि ऐसे आमिरों की गिनती कर पाना भी बुते से बाहर मालूम पड़ता है। आज़ादी
के साथ मिली इस सियाशी लाइलाज बीमारी से कब पीप निकलने लगती है और कब लाखों आमिर
उसकी बलि चढ़ जाते हैं, इसका कोई दस्तावेजी उत्तर नहीं मिलता। लेखक लिखते हैं, “यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। तिरसठ बरसों से धमाकों और न्याय का यह
सिलसिला जारी है। न्याय का दायरा बढ़ रहा है दिन-रात। न्याय के मारे नदी में बहता
पानी लाल। मिट्टी, फ़सल, घास-पेड़-पौधे और जंगल लाल।
लाल...लाल...लाल...लाल...फैलता ही जा रहा धरती पर लाल...लाल...।”[6]
ऐसे ही सियासी आकाओं के समकक्ष अपने
को व्यवस्था और नैतिकता के पैरोकार समझने वाले तथाकथित समाजों की कथा ‘काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लिस’ में पढ़ी जा सकती है।
ऐसे हिंसापरस्त लोग समाज में धर्म, कर्म, आचरण, स्वभाव और मूल्यों की सारणियाँ
निर्मित कर उनकी कठोर पालना के लिए लोगों को विवश करते हैं और उसकी अनुपालना के
एवज में आनर किलिंग की घटनाओं को उपजाते हैं। ‘खाप पंचायत’, ‘एनटी रोमियो’ जैसे लेबलों
के कारण काफ़िर बनने पर मजबूर हुए लोगों का कोई भी आँकड़ा, अभी लिखित इतिहास में
नहीं ढूँढ़ा जा सकता। ऐसे ही लोग खुदा के नामों की चार-दीवारी खींचकर, हत्या को
प्रेम से बेहतर सिद्ध करते हैं। लेखक ऐसे लोगों द्वारा दिए गए तमगों को वर्णित
करते हुए लिखते हैं, “उन सभी औरतों की रूहों ने सिर्फ़ और
सिर्फ़ बुर्क़ा ही पहने थे, बुर्क़े के भीतर और कोई वस्त्र न पहने थे। उन सभी ने
एक साथ बुर्क़े उतार फेंके और चीखती हुई कहने लगीं–ये देखो...ये देखो...ये दिया।
उन निर्वस्त्र रूहों पर लाठी, पत्थर, चाकू, तलवार, गोलियों के घाव। नासूर। रिसता
ख़ून, हलाहल करते कीड़े थे। महात्मा गाँधी मार्ग पर जहाँ तक प्रकृति की नज़र जा
रही थी, उसे निरवस्त्र और ज़ख़्मी रूहों के सिवा कुछ नज़र नहीं आ रहा था।”[7] सौहार्द और मानवीय प्रेम करने वाली इन निरीह स्त्रियों को कोड़ों,
गोलियों और बर्छों का दान मिला। इस इंसाफ के ठेकेदारों को क्या सज़ा मिल पाएगी? इस प्रश्न का क्या कोई उत्तर भी हो सकता है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा
जा सकता।
इस प्रकार उक्त कहानियाँ अपने कहन
की शैली और कथानक के कारण समसामयिक विषयों पर गहरी मार करती हैं। छोटे-छोटे वाक्य
इनकी रोचकता को और अधिक पुष्ट करते हैं, जिससे कब कहानी का नायक पाठक स्वयं को
महसूस करने लगता है, इसका पता ही नहीं चलता। ऐसे विकट समय में जब साहित्य के बिकाऊ
और उपयोगिताविहीन होने के प्रश्न खड़े हो रहे हैं, सत्यनारायण पटेल का यह कहानी-संग्रह
सभी बातों को मात्र जुमला सिद्ध करता है। समग्रतः शशिभूषण मिश्र के शब्दों में कहा
जा सकता है, “सत्यनारायण पटेल हमारे संक्रमित
समय के ऐसे युवा कथाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन जीवन के गत्यात्मक
यथार्थ को पूरी विश्वसनीयता के साथ रेखांकित किया है। विकास की जमीनी सच्चाइयों,
हाशिये के समाज के संकटमय जीवन और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी ग्रामीण राजनीति से
साक्षात्कार कराने वाले...पटेल ने सत्ता-व्यवस्था की कारगुजारियों और इन्हें चलाने
वाली प्रतिगामी शक्तियों की पहचान की है।”[8]
पुस्तक
– काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लिस
लेखक-
सत्यनारायण पटेल
प्रकाशक
– आधार प्रकाशन, पंचकूला
अंकित(शोधार्थी)
हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय,
चंडीगढ़।
सन्दर्भ सूची -
[1].
बेव दुनिया, देहात की दुर्दशा ने बनाया कथाकार-सत्यानारायण पटेल, {ऑनलाइन उपलब्ध है} http://hindi.webdunia.com/hindi-poet-interview/देहात-की-दुर्दशा-ने-बनाया-कथाकार-सत्यानारायण-पटेल-114021500030-1.htm Dated - 14.07.2017, Time-
11:10AM
[3].
वही, पृष्ठ - 17
[4].
वही, पृष्ठ – 25-26
[5].
वही, पृष्ठ - 38
[6].
वही, पृष्ठ - 92
[7].
वही, पृष्ठ - 132
[8].
ब्लोगर, विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिये का समाज, {ऑनलाइन उपलब्ध है} http://pahleebar.blogspot.in/2016/03/blog-post_30.html Dated - 14.07.2017, Time – 12:17PM
शानदार लेखन | सुन्दरतम शैली | आपकी कलम की स्याही अमर रहे अंगुलियों के पोर में वो ताकत आए की जब आप ज्वलंत मुद्दों पर कलम चलाएं तो वो कापें न | आप कहाँ से हैं इसकी सुचना दीजिएगा बन्धु | धन्यवाद |
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